स्वामी दयानंद और आर्यसमाज की हिंदी भाषा को देन
स्वामी दयानंद और आर्यसमाज की हिंदी भाषा को देन
(10 वें विश्व हिन्दी सम्मलेन 10-12 सितम्बर के अवसर पर जनप्रचार हेतु प्रचारित)
स्वामी दयानंद ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को असफल होते देखा था और उसके असफल होने का मुख्य कारण भारतीय समाज में एकता की कमी होना था। स्वामी दयानंद ने इस कमी को समाप्त करना आवश्यक समझा। उन्होंने चिन्तन-मंथन किया कि अगर भारत देश को एक सूत्र में जोडऩा है तो उसकी एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है। यह रिक्त स्थान अगर कोई भर सकता था तो वह हिंदी भाषा थी। स्वामी दयानंद द्वारा सर्वप्रथम 19 वीं सदी के चौथे चरण में एक राष्ट्र भाषा का प्रश्न उठाया गया और स्वयं गुजराती भाषी होते हुए भी उन्होंने इस हेतु आर्यभाषा (हिंदी) को ही इस पद के योग्य बताया। अपने जीवन काल में स्वामीजी ने भाषण, लेखन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश आदि हिंदी में देने आरंभ किये जिससे हिंदी भाषा का प्रचार आरंभ हुआ और सबसे बढ़कर जनसाधारण के समझने के लिए हिंदी भाषा में वेदों का भाष्य किया। इससे हिन्दू साहित्य और भाषा को नये उपादान प्रदान किये और प्रत्येक आर्यसमाजी के लिए हिंदी भाषा को जानना प्राय: अनिवार्य कर दिया गया।
स्वामीजी इससे पहले संस्कृत में भाषण करते थे इसलिए केवल पठित पंडित वर्ग ही उनके विचारों को समझ पाता था। कालांतर में जब उन्होंने हिंदी भाषा में व्याख्यान प्रारंभ किये तो उससे जन साधारण की उपस्थिति न केवल अधिक हो गई अपितु जनता के लिए उनके प्रवचनों को ग्रहण करना आसान हो गया। स्वामीजी ने अपने संपर्क में आने वाले सभी देशी राजाओं को अपने राजकुमारों को हिंदी के माध्यम से धार्मिक शिक्षा दिलवाने की सलाह दी थी जिससे उनमें देश-भक्ति का सूत्रपात हो सके।
स्वामीजी द्वारा अपने सभी ग्रन्थ हिंदी भाषा में रचे गये जैसे सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेद-भाष्य आदि। इनके सैकड़ों संस्करण छपे और देश में उनके प्रचार से हिंदी भाषा के प्रचार को जो गति मिली उसका पाठक सहजता से अनुमान लगा सकते हैं।
1882 में भारतीय शिक्षण संस्थाओं में भाषा के निर्धारण को लेकर ‘हन्टर कमीशनÓ के नाम से कोलकता में आयोग का गठन सर विलियम हंटर की अध्यक्षता में किया गया था। स्वामी दयानंद ने इस कमीशन के समक्ष हिंदी को शिक्षा की भाषा निर्धारित करने के लिए आर्यसमाजों को निर्देश दिया कि वे हिन्दी भाषा के समर्थन में हंटर आयोग में अपनी सम्मति भेजें। फर्रुखाबाद, देहरादून, मेरठ, कानपुर, लखनऊ आदि आर्यसमाजों को भी इस विषय पर कोलकता पत्र भेजने को कहा था।
हिंदी भाषा भारतीय जनमानस की मानसिक भाषा है इसलिए उसे ही पाठ्यक्रम की भाषा के रूप में स्वीकृत किया जाये ऐसा समस्त आर्यसमाज द्वारा हिंदी भाषा के प्रचार के लिए प्रयत्न किया गया था। निश्चित रूप से हिंदी भाषा के प्रचार के लिए यह कार्य ऐतिहासिक महनव का था।
स्वामी जी के देहांत के पश्चात् आर्यसमाज के सदस्यों ने हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में दिन रात एक कर दिया। आर्यसमाज के सदस्यों द्वारा लाखों पुस्तकें हिंदी भाषा में अलग अलग विषयों पर लिखी गई। गद्य, पद्य, काव्य, निबन्ध आदि सभी प्रकार के साहित्य की रचना हिंदी भाषा में हुई। हजारों पत्र-पत्रिकाओं का हिंदी भाषा में प्रकाशन हुआ। सैंकड़ों पाठशालाओं, विद्यालयों, गुरुकुलों के माध्यम से हिंदी भाषा का सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में जैसे मारीशस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भी हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार हुआ।
आर्य दर्पण (आर्य समाज का सर्वप्रथम हिंदी पत्र) , आर्य भूषण, आर्य समाचार, भारतसुदशा प्रवर्तक, वेद प्रकाश, आर्य पत्र, आर्य समाचार, आर्य विनय, आर्य सिद्धांत, आर्य भगिनी आदि अनेक पत्र तो विभिन्न आर्य संस्थाओं द्वारा 20 वीं शताब्दी आरम्भ होने से पहले ही निकलने आरम्भ कर दिए थे। 20 वीं शताब्दी में इनकी संख्या इतनी थी कि इस लेख में उन्हें समाहित करना संभव नहीं हैं। पाठक इस उल्लेख से समझ सकते हैं कि आर्यसमाज के प्रचार का माध्यम हिन्दी होने के कारण हिंदी भाषा के उत्थान में आर्यसमाज का क्या योगदान था।
स्वामी जी के प्रशंसक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की हिंदी भाषा को देन से साहित्य जगत भली प्रकार से परिचित है। कालांतर में मुंशी प्रेमचंद, कहानीकार सुदर्शन, आचार्य रामदेव, बनारसी दास चतुर्वेदी, इंद्र विद्यावाचस्पति, सुमित्रानंदन पन्त, मैथिलिशरण गुप्त, पदम् सिंह शर्मा आदि से आरंभ होकर हरिवंश राय बच्चन, विष्णु प्रभाकर, क्षितीश वेदालंकार आदि तक हजारों की संख्या में आर्यसमाज से दीक्षित और अनुप्राणित साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य की रचना की जिससे हिंदी समस्त भारत की साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित हो गई।
स्वामी श्रद्धानंद ने अपने पत्र सद्धर्म प्रचारक को एक रात में उर्दू से हिंदी में परिवर्तित कर दिया, उन्हें आर्थिक हानि अवश्य उठानी पड़ी पर उनके पत्र की प्रसिद्धि को देखते हुए उसे पढ़ पाने की इच्छा ने अनेकों पाठकों को देवनागरी लिपि सीखने के लिए प्रेरित किया।
पत्रकारिता में नये आयाम आर्यसमाज के सदस्यों के स्थापित किये। पंजाब के सभी प्रसिद्ध अख़बार जैसे प्रताप, केसरी, अर्जुन, युगांतर आदि अनेक पत्र हिंदी में ही निकलते थे, जो आर्यसमाजियों ने ही चलाए थे। पंजाब के जन आंचल में उस काल में उर्दू मिश्रित फारसी भाषा बोली जाती थी जिसके प्रचार में उर्दू पत्र जमींदार आदि का पूरा सहयोग था।
सैकड़ों गुरुकुलों, डीएवी स्कूल और कॉलेजों में हिंदी भाषा को प्राथमिकता दी गई और इस कार्य के लिए नवीन पाठ्य क्रम की पुस्तकों की रचना हिंदी भाषा के माध्यम से गुरुकुल कांगड़ी एवं लाहौर आदि स्थानों पर हुई जिनके विषय विज्ञान, गणित, समाज शास्त्र, इतिहास आदि थे। यह एक अलग ही किस्म का हिंदी भाषा में परीक्षण था जिसके वांछनीय परिणाम निकले।
विदेशों में भवानी दयाल सन्यासी, भाई परमानन्द, गंगा प्रसाद उपाध्याय, डॉ0 चिरंजीव भारद्वाज, मेहता जैमिनी, आचार्य रामदेव, पंडित चमूपति आदि ने हिंदी भाषा का प्रवासी भारतीयों में प्रचार किया जिससे वे मातृभूमि से दूर होते हुए भी उसकी संस्कृति, उसकी विचारधारा से न केवल जुड़े रहे अपितु अपनी विदेश में जन्मी सन्तति को भी उससे अवगत करवाते रहे।
आर्यसमाज द्वारा न केवल पंजाब में हिंदी भाषा का प्रचार किया गया अपितु सुदूर दक्षिण भारत में, आसाम, बर्मा आदि तक हिंदी को पहुँचाया गया। न्यायालय में दुष्कर भाषा के स्थान पर सरल हिंदी भाषा के प्रयोग के लिए भी स्वामी श्रद्धानंद द्वारा प्रयास किये गये थे।
वीर सावरकर हिंदी भाषा को स्वामी दयानंद के देन पर लिखते हैं- ”महर्षि दयानंद द्वारा लिखित सत्यार्थ प्रकाश में जिस हिंदी के दर्शन हमें मिलते हैं, वही हिंदी हमें स्वीकार है। यह सरल, अनावश्यक विदेशी शब्दों से अलिप्त होकर भी अत्यंत अर्थ वाहक तथा प्रवाही है। महर्षि दयानंद ही सर्वप्रथम नेता थे, जिन्होंने ‘हिंदुस्तान के अखिल हिन्दुओं की राष्ट्र भाषा हिंदी है।Ó ऐसा उद्घोष व प्रयास किया था।ÓÓ
(सन्दर्भ-वीर वाणी पृष्ठ 64)
शहीद भगत सिंह ने पंजाब की भाषा तथा लिपि विषयक समस्या के विषय में अपने विचार भाषण के रूप में प्रस्तुत करते हुए हिंदी भाषा के समर्थन में कहा था कि-
‘बहुत से आदर्शवादी सज्जन समस्त जगत को एक राष्ट्र, विश्व राष्ट्र बना हुआ देखना चाहते हैं। यह आदर्श बहुत सुंदर हैं। हमको भी इसी आदर्श को सामने रखना चाहिए। उस पर पूर्णतया आज व्यवहार नहीं किया जा सकता, परन्तु हमारा हर एक कदम, हमारा हर एक कार्य इस संसार की समस्त जातियों, देशों तथा राष्ट्रों को एक सुदृढ़ सूत्र में बांधकर सुख वृद्धि करने के विचार से उठना चाहिए। उससे पहले हमको अपने देश में यही आदर्श कायम करना होगा। समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, एक साहित्य, एक आदर्श और एक राष्ट्र बनाना पड़ेगा, परन्तु समस्त एकताओं से पहले एक भाषा का होना जरुरी है, ताकि हम एक दूसरे को भली भान्ति समझ सके। एक पंजाबी और एक मद्रासी इक_े बैठकर केवल एक-दूसरे का मुँह ही न ताका करें, बल्कि एक-दूसरे के विचार तथा भाव जानने का प्रयत्न करें। परन्तु यह पराई भाषा अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की अपनी भाषा हिंदी में होना चाहिए।
महात्मा गाँधी हिंदी भाषा के कितने बड़े समर्थक थे इसका पता उनके इस कथन से मिलता है जब उन्होंने कहा था की जगदीश चन्द्र बसु आदि विद्वानों के आविष्कार जनता की भाषा में प्रकट किये जाते तो जिस प्रकार तुलसी रामायण जनता की भाषा में लिखी होने के कारण अपनी चीज बनी हुई हैं, उसी प्रकार से विज्ञान की चर्चायें, विज्ञान के आविष्कार जनता के जीवन को प्रभावित करते।
स्वामी दयानंद और आर्यसमाज की हिंदी भाषा को देन निश्चित रूप से अविस्मरणीय एवं अनुकरणीय है।
डॉ0 विवेक आर्य
एक तथ्यपूर्ण एवं प्रशंसनीय लेख। महर्षि दयानंद ही प्रथम पुरुष थे जिन्होंने गैर हिंदी भाषी होते हुवे सर्वप्रथम न केवल हिंदी भाषा एवं देवनागरी अक्षरों का प्रचार किया अपितु वेद भाष्य सहित विश्व प्रसिद्ध सत्यार्थ प्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रंथों का भी हिंदी में प्रणयन एवं प्रचार किया था। वह ही प्रथम पुरुष थे जिन्होंने हिंदी को देश की न केवल बोलचाल अपितु साहित्य एवं राजभाषा होने का स्वप्न लिया और इसके लिए ऐतिहाषिक कार्य भी किया। इस सुन्दर लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद।
जी उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद