“बदनाम बस्ती “
जा आइने से कह तनिक बदनाम है बस्ती मेरी
लगा बोली खड़े बाजार गुमनाम है हस्ती मेरी
कहां से आते हैं लोंग इसे छुप कर लगाने गले
पानी बिना चलती कहाँ रेगिस्तान में कश्ती मेरी ||
थककर उठाया पाँव मैंने इस वक्तके ढलान पर
यूँही नहीं खड़ी है मोहिनी इस रूप की दुकान पर
मन सजाया था कभी कि बरसेगा मेरा आसमान भी
आ गिरी पतझड़ की मारी पड़ी इस खस्ते मचान पर ||
छोड़ा गुनाहों ने मुझे है इस भंवर में घाव देकर
खुद यहाँ आता कि कोई ना मुरादी छाँव लेकर
पा किस गुनाहों की सजा सहती यहाँ ठठरी मेरी
बन सुहागन मै न उछलूं ठांव अपना पांव लेकर ||
यूँ न बजते गम के घुँघरू बिखरे हुए हैं फर्स पर
दौलत उतरती है कहाँ जो बैठी हुयी है अर्स पर
सहती हवस की मार हर मजबूर मुजरा जान बस
किस मर्ज की मरहम है वेश्या नाचती हुयी हर्षपर ||
ठुमके पर लोंग गिरते-गिराते है मरी हवस अपनी
गिद्ध सी ललाचाई ऑंखें दिखाती हैं तरस कितनी
लार पे लार गिराते है जानवर किस जंगल से यहाँ
तवायफ तपाती हैं बीमार जमीर को तपिस अपनी ||
गम के पुजारी जा सजा फूल अपने चारोधाम में
भूल से न आना तवायफ के यहाँ उजड़े धाम में
दम है तो रोक ले इसी की नथ उतरवाई है आज
सीनातान बैठे हैं मुस्टंडे इक बस के सरजाम में ||
महातम मिश्र
उम्दा लेखन
अति सुंदर रचना
सादर धन्यवाद आदरणीया विभा रानी श्रीवास्तव जी, उत्साह वर्धन हेतु आभार महोदया