ऐ शाम-ए-ज़िन्दगी
ऐ शाम ए ज़िन्दगी
मुझसे मुलाकातें तो कर
ऐ शाम ए ज़िन्दगी
फुरसतों में दो बातें तो कर
हल्की हल्की रौशनी में
पिघल रहे हैं ज़िस्म मेरे
फ़ासलें मिटाने की साज़िशें तो कर
नज़रों के सामने बैठ ज़रा
मुझसे ही ख़फा हो
महफिलों में हरकतों को तेरी तरसते हैं
हमसे ही शिकायतें तो कर
ज़िक्र करें तेरा
ऐ शाम ए ज़िन्दगी
तेरी नादानियों की फिक्र करें
महफ़िलों में घूरती हैं नज़रें कई
अपनी आँखों के काजल से महफ़ूज़ करें
कतरा कतरा डूब रही
ख्वाहिशों के शामियाने में
एक लिवाज़ अपनें अल्फाज़ों में जाहिर न करें
छिपा कर रख लें ख़ुद को
बस तेरी मौज़ूदगी में हम जीए
मुझसे मुलाकातें तो कर !
— प्रशांत कुमार पार्थ
सुंदर अभिव्यक्ति…
jee dhanyabad