कविता

हिन्दी बचाओं

मर रही हू आज जर्र जर्र
मैं अपने ही घर में
घट रहा है मान मेरा
मेरे अपने वतन में
देखकर भी अनदेखा
मुझे किया जाता है
मेरा अपना असतित्व ही
अब मुझसे शर्माता है
भले मैं हू रज रज में बसी
पूरे भारतवर्ष के
मगर नही अब मेरी कदर
न ही अपने बस के
न मेरे नाम पर दाखिले
ना ही कोई नौकरी
न ही सरकारी काम काज
रह गई नाम की खोखली
सिर्फ नाममात्र का कद मेरा
जो मुझे है झेलना
अंग्रेजी के आगे हरदम
होती मेरी अवहेलना
हर कोई अपने स्वाभिमान को
बस अंग्रेजी में ढालता है
मेरे मर्म को रोंदकर
अपना अस्तित्व पालता है
गुलामी की जंजीरे
आज भाषा के रुप में है
नही समझती अंधी व्यवस्था
ढलती जा रही विदेशी स्वरुप है
समय है अब भी संभाल लो
न होने दो मुझे तुम और लुप्त
मैं राष्टभाषा कहलाती हू
कर दो मुझे अपनाकर तृप्त

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]

7 thoughts on “हिन्दी बचाओं

  • एकता सारदा

    शुक्रिया सर

  • Man Mohan Kumar Arya

    राष्ट्र भाषा हिंदी के प्रति कवित्री बहिन की उच्च एवं श्रेष्ठ, प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय भावनाएं। आपको ह्रदय से वंदन है।

    • एकता सारदा

      जवाब देरी से माफी चाहती हू।सह्रदय आभार आपका आदरणीय

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद बहिन जी।

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मैंने बिदेस में रह कर भी बच्चों को मातर भाषा पंजाबी सिखाई है और हिंदी की फ़िल्में अच्छी तरह समझ लेते हैं . एक रिश्तेदार मुम्बई से अपने बच्चों के साथ यहाँ आये .उन के बच्चे और उन की माँ इंग्लिश बोलती थी और मेरे बच्चे पंजाबी में जवाब देते थे . सुबह उठ कर उन्होंने हम से मुआफी मांगी और कहा कि वोह शर्मसार महसूस कर रहे हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      भाई साहब, इस बिरादरी के लोग भारत में कम नहीं हैं.

Comments are closed.