डायरी
डायरी
बचपन से ही सारी यादें सॅंजो लेती थीं
चन्द पन्नों में
कुछ रंगीन तितलियों की तरह
कुछ अँधियारों सी स्याह
कहीं खुशियों ने घेरा था कोना
तो कहीं गमों को मिला हाशिया
बरस बीते
पहुँच गयी मैं जवानी की दहलीज पर
लिखने लगी थी प्रेम कहानियाँ
कुछ खट्टे-मीठे किस्से
तो कुछ संवेदनाए
जो छू लेती थीं दिल को,
महसूस होती थी
एक सुखद अनुभूति
जब-जब देखा करती थी
पन्नों को उलट-पलट कर,
वक़्त बीता
छूट गये पीछे
अल्हड़ जवानी और
कमसिन कुँवारापन
और मैं हो गयी रूपांतरित
एक गंभीर विवाहता में
कुछ क्षण बड़ा ही सुखद एहसास
संजोने लगी हर लम्हा
कुछ नये पन्नों में
किंतु धीरे-धीरे शब्द होने लगे थे तंग
हाशिए और कोने
लगने लगे थे बदरंग
वो जो रंगीन तितलियाँ होती थी
मेरे फटे-पुराने पन्नों पर
नहीं फटकती थी अब पास
मैं लाख कोशिश करती
किंतु नहीं मिलता था
उन्हें वह मधु
जिसके लिए मंडराती थी
वे आस-पास
लिखती अब भी थी
किंतु बदल गयी थी
कलम की स्याही
अब लिखती थी
कभी-कभी
अश्कों से,
वह सब जिसको
कहने की
हर कोशिश थी नाकाम
खटकता था एक डर
ज़हन में
रिश्तों के टूटने का
या फिर खो जाने का
कभी-कभी भर लेती थी
रंगीन स्याही
अपनी कलम में जबरन
लिख डालती थी
मुस्कान बनावटी,
हाँ किंतु फटे पन्ने अब
तब्दील हो गये थे
एक डायरी में
जिसमें छिपा था दर्द
अनकहे लम्हों का,
कुछ दबे से शब्द
जो कह रहे थे कहानी
बनावटी मुस्कान की,
स्याही आँसुओं की,
और कुछ संवेदनाएँ
जिन्हें मिल न पाया स्वर
बन चुका था मुख्य पृष्ठ
डायरी का
जिसका रंग था सुनहरीऔर
सज़ा था
कुछ लाल, पीली , गुलाबी तितलियों से
जिनके पंख हैं नुचे हुए ?
मध्य में लिखा था सुर्ख रंग से
” नारी जीवन “
— रोचिका शर्मा
वाह्ह
अति सुंदर रचना