जिंदगी
मेरे भूत,वर्तमान
और भविष्य के साथ
कई कुछ ही जुडता रहा
बेतरतीब सा
दिल करता है कभी कभी
फिर से
इस सारी किताब के
वर्क वर्क बिखेर कर
पन्नों को फिर से तरतीब दू
टुकड़ों को खोलू
फिर से
तरतीब मे जोडू
तो और भी उलझ जाते हैं
मेरे ख्याल ….
तब मै इस सारी सोच से
बाहर निकल
मुस्करा कर कहती हूँ
कि इतना काफी नही जिंदगी
कि तुम मुझे
अपने ढंग से मिली थी
और मैने तुम्हें
अपने ढंग से जी लिया ….!!!
— रितु शर्मा
बहुत ही सुन्दर भाव प्रवाह आदरणीया ऋतू शर्मा जी, सादर बधाई
सुंदर सृजन
बहुत सुंदर कविता !