एहसान पात्र बेटियाँ
बेटी की नहीं होती है क्यों अपनी कोई पहचान,
इसके जीवन को सभी समझते अपना एहसान।
सबके एहसानों तले ये हरदम दबी रहती है,
मन को मारकर जिनेवाली कभी नहीं उबरती है।
चारदीवारी से कैसे निकले द्वार पर है क़ई बंधन,
एहसान नहीं चाहिए उसे अधिकार और आरक्षण।
सिने में दबी है आग इसके तूफान है इसके साँसों में,
समुद्र को दबाई है देखो ये अपनी आँखों में।
सब इसे सीख देते हैं सीता बन अपना धर्म निभाओ,
कोई नहीं कहता है बेटी कल्पना बनके उड़ान लगाओ।
ये भी मानव जाति की है देखना चाहती है ये दुनिया,
पंख नहीं लगा सकते तो पैरों में मत लगाओ बेड़ियां।
इसके दिल में भी हैं कुछ चाहत दो इसे जिने की आस,
लक्ष्मीबाई और इंदिरा जैसी ये भी रचेगी एक इतिहास।
-दीपिका कुमारी दीप्ति