धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सद्-असद् का सनातनी संघर्ष

शताब्दियों वर्ष पूर्व से इतिहास प्रमाणित करता आ रहा है कि सामाजिक समरूपता, आध्यात्मिकता व धार्मिकता के प्रभाव के कारण हमारा यह भारत देश सम्पूर्ण विश्व में सदैव अग्रणी रहा है। हमारे ज्ञान के दर्पण वेद-पुराण, उपनिषद् एवं दर्शन ऐसी कसौटियां रही हैं, जिनमें तरासे मानव में सद्गुणों की स्वतः वृद्धि हो जाती है और वह परम शान्तिमय जीवन व्यतीत कर अपने जीने का एहसास कराते हुए नाम अमर कर देता है। इतिहास साक्षी है कि यहां के महात्मा एवं महापुरूषों ने देवभक्ति के साथ ही देशभक्ति का आदर्शतम उदाहरण सदैव विद्यमान रखा है और परोपकारार्थ अपने जीवन को भी न्यौछावर किया है, कहा भी गया है कि- ’परोपकाराय सतां विभूतयः’ ऐसी महान् आत्माओं का वर्तमान प्राणी-जगत् अनवरत ऋणी रहेगा और उनके गुणों का गान करते हुए उन्हें शत्-शत् नमन करता है। महापुरूषों की लम्बी सूची है, जिनकी महानता का वर्णन पृथक्-पृथक् समय के अन्तराल से साहित्यकारों, लेखकों एवं कवियों द्वारा किया गया ताकि ऐसी महान् आदर्शता कभी विलुप्त होने न पाये और समय की आवश्यकता पर ये मानवों के लिए दिशानिर्देश के काम आते रहें। इन्हीं उत्कृष्ठ कार्यों के कारण उन्हें ईश्वरीय अंश मानकर पूज्य श्रेणी में रखा गया है।

ईश्वर किसी जाति विशेष व पृथक् से सृजित परिवार में जन्म लेने वाले प्राणी को नहीं पुकारा जाता, बल्कि वह उसके आदर्श विचारों एवं सद्कर्मो तथा सत्पथ प्रदर्शकता के कारण ईश्वर या भगवान् कह कर पुकारा जाता है। ईश्वर ने समय-समय पर सन्मार्ग से विचलित मानव के उचित एवं आवश्यक दिशा-निर्देशन हेतु मानवीय व्यवस्था के अनुकूल जन्म लेकर स्पष्ट किया कि ईश्वर कोई अलग से जीवधारी नहीं है, बल्कि मानवीय जीवन व जीव के अन्तर्गत जन्मने वाला प्राणी है, परन्तु उसे भगवान् की संज्ञा इसलिए दी गयी कि उसने अच्छाईयों एवं आदर्शता का सदैव साथ दिया और बुराईयों का विनाश किया। उसकी विलक्षता ही उसे ईश्वरीय अंश प्रदान करता है, ईश्वर कल्याणवाचक नाम है।

सृष्टि के अन्तर्गत सृजनकर्ता ने मानव को इतना सक्षम बनाया है कि वह कर्मों से चाहे तो स्वयं को भगवान्, इन्सान अथवा दानव बना सकता है। इसीलिए इस मानव योनी में जन्मने के लिए देवलोक ने देवगण लालायित रहते हैं। वैकुण्ठवासी श्री हरि का साक्षात् अवतार होने पर भी श्री राम चन्द्र ने मानवीय व्यवस्थाओं एवं मर्यादाओं का सदैव पालन कर आदर्शतम उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसके कारण वे मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान् श्री राम के नाम से जग प्रसिद्ध हुए। उनकी अविस्मरणीय छवि भगवत्प्रेमियों का निरन्तर सत् पथप्रदर्शन करती रहेगी। यही ईश्वरीय इच्छा है।
परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भागवद्गीता)
अर्थात्
होता विनाश धर्म और सत्य का जब-जब।
लेते जन्म प्रभु धर्म रक्षा हेतु तब-तब।।

ईश्वर सद्गुणों की खान, सत्य, धर्म और पुण्य का संस्थापक होता है। अत्याचार बढ़ने पर उसके विनाश हेतु अवतार धारण कर लोक-हितार्थ कार्य करता है। सतयुग जो कि चारों युगों में अग्रणी (प्रथम) युग है, को दैवीय शक्ति की प्रबलता के कारण देवयुग के नाम से पुकारा जाता है। इस युग में दैवीय शक्तियों की प्रभुता प्रबल थी। फिर भी जब कभी दिति और अदिति के पुत्रों में आपसी मनमुटाव की स्थिति पैदा होती और दैत्यबल की प्रबलता अर्थात् अत्याचार का प्रभाव बढ़ने लगता, तो दैवगणों की प्रार्थना पर प्रभु सर्वजनरक्षक विभिन्न रूपों में अवतार धारण कर दैवों/मानवों की रक्षा करके धर्म की पुनः स्थापना करते रहे।

सुर अर्थात् देवगण सत्यता, धार्मिकता एवं शुद्धता के परिचायक हैं, जबकि असुर अर्थात् दैत्यबल पाप अन्याय, अत्याचार और अशुद्धता के प्रतीक हैं। इस आधार पर दैव और दैत्य भावनाओं की विभिन्नता के कारण विभक्त किये जाते हैें। इनमें सदैव अपनी-अपनी भावनानुरूप अस्तित्व को बढ़ाने व राज्य स्थापना की होड़ बनी रहती, जिससे कि कभी दिति पुत्रों (दैत्यों) की प्रभुता बढ़ी तो कभी अदिति पुत्रों (देवों) की प्रभुता बढी़। इस प्रकार से भावनाओं के साथ-साथ सत् और असत् में परिवर्तन निरन्तर चला आ रहा है। यही सद्-असद् भावनाओं का सनातनी संघर्ष है।

दैव और दानव आपस में हमेशा ही वर्तमान प्रजातांत्रिक राजनीति की उठा पटक की तरह सत्तारूढ़ एवं विपक्षी दल के रूप में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के साथ-साथ सत्ता प्राप्ति/अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने हेतु आवश्यकतानुसार विभिन्न हथकण्डे अपनाते रहते थे। सत्य और असत्य तथा धर्म और अधर्म एवं पाप और पुण्य के बीच के संघर्ष का इतिहास शतत् जारी रहा है। देवता सत्य, सद्भावना एवं धर्म के प्रतीक तथा शुद्ध व सुमधुरतम भाषा का प्रयोग करने वाले होते हैं, जबकि दानव इसके ठीक विपरीत असत्य, दुर्भावना एवं अधर्म के प्रतीक तथा अशुद्ध व कड़वी से कड़वी (कठोरतम) भाषा का प्रयोग करने वाले होते हैं। सात्विक भावना की प्रबलता दैवों में जबकि तामसी गुणों का भण्डार दैत्यों में पाया जाता है। इन्हीं विरोधी एवं विपरीत विचारों, गुणों एवं कर्मों के कारण आपसी टकराव के रूप में प्रभुत्व की लड़ाई के लिए दैव-दानवों में कई बार दैवासुर संग्राम हुआ। हमारे प्राचीन ग्रन्थ एवं पुराण इस बात के साक्षी हैं कि सदैव सद्भावना की तरफ ही विजयश्री का झुकाव रहा है।

दानवों द्वारा बार-बार अपनी पुरानी दुश्मनी व विरोधी घटनाओं के मद्देनजर प्रतिशोध की भावना की प्रधानता के कारण देवताओं से लड़ाईयां लड़ी गयी, लेकिन सत्य एवं धर्म का सहारा न लेने के फलस्वरूप उन्हें हमेशा ही मुंह की खानी पड़ी, जबकि देवताओं ने सत्य एवं धर्म को ही अपना मुख्य निर्णायक माना, जिसके प्रभाव से समय-समय पर विजयश्री को प्राप्त किया। छल-कपट, झूठ-फरेव, चैरी-डकैती, अपहरण-हत्या, दुराचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, अन्याय आदि ये सभी आसुरी भावनाओं की जड़ें हैं। जो कि किसी भी स्तर पर अनुकूलता प्रदान नहीं कर सकती तथा जिनके सहारे अन्तिम निर्णायक सफलता कभी-भी सम्भव नहीं है। इसी कारण पौराणिक काल से ही ’सत्यमेव जयते’ के आदर्शता के बल पर मानव ने कठिन से कठिन परिस्थ्तिियों को भी सरलता से पार किया है।

शम्भु प्रसाद भट्ट 'स्नेहिल’

माता/पिता का नामः- स्व. श्रीमति सुभागा देवी/स्व. श्री केशवानन्द भट्ट जन्मतिथि/स्थानः-21 प्र0 आषाढ़, विक्रमीसंवत् 2018, ग्राम/पोस्ट-भट्टवाड़ी, (अगस्त्यमुनी), रूद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड शिक्षाः-कला एवं विधि स्नातक, प्रशिक्षु कर्मकाण्ड ज्योतिषी रचनाऐंः-क. प्रकाशितःः- 01-भावना सिन्धु, 02-श्रीकार्तिकेय दर्शन 03-सोनाली बनाम सोने का गहना, ख. प्रकाशनार्थः- 01-स्वर्ण-सौन्दर्य, 02-गढ़वाल के पावन तीर्थ-पंचकेदार, आदि-आदि। ग. .विभिन्न क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्र/पत्रिकाओं, पुस्तकों में लेख/रचनाऐं सतत प्रकाशित। सम्मानः-सरकारी/गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के तीन दर्जन भर से भी अधिक सम्मानोपाधियों/अलंकरणों से अलंकृत। सम्प्रतिः-राजकीय सेवा/विभिन्न विभागीय संवर्गीय संघों तथा सामाजिक संगठनों व समितियों में अहम् भूमिका पत्र व्यवहार का पताः-स्नेहिल साहित्य सदन, निकटः आंचल दुग्ध डैरी-उफल्डा, श्रीनगर, (जिला- पौड़ी), उत्तराखण्ड, डाक पिन कोड- 246401 मो.नं. 09760370593 ईमेल [email protected]