लघुकथा : निर्दोष
चंद्रपाल की पत्नी अपनी छोटी बेटी को लगातार पीट रही थी और मुँह से अपशब्द भी बक रही थी, बेटी रो-रोकर कह रही थी- “अम्मा मैंने नहीं लिया, मैं सच कह रही हूँ। देखो न मैंने कहाँ छुपा रखा है?”
इतना सुनते ही उसकी माँ ने दो-चार तमाचे और रसीद दिए जिससे वह तिलमिला गई। माँ ने बोलना जारी रखा-“झूठी कहीं की,जब सौ झूठे मरे हैं तब तू जन्मी है।रोज का तेरा यही धंधा है इतना न दूँ तो और न चुराए तू।”
इसी समय चंद्रपाल खेत जोतकर आया और बैलों को बाँधकर बोला-“क्या रोज की नौटंकी शुरू है? जब देखो किच-किच लगा रहता है।घर न हुआ महाभारत का मैदान हो गया।”
पत्नी से पूरी बात सुनकर चंद्रपाल आगबबूला हो गया और उसने भी बेटी के दो थप्पड़ जड़ दिए।शोरगुल सुनकर सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया और एक-दूसरे से पूछने लगे कि आखिर हो-हल्ला का कारण क्या है।एक बुजुर्ग ने आगे बढ़कर चंद्रपाल से पूछा- “बेटा! तुम अपनी बेटी को क्यों मार रहे हो? क्या गलती है उसकी?”
चंद्रपाल ने बताया कि उसकी पत्नी ने एक किलो चीनी मंगाई थी लेकिन इसने पता नहीं पैसों का क्या किया चीनी तीन पाव ही निकली और अब बता भी नहीं रही।मैं सबकुछ लाकर देता हूँ लेकिन इसकी चोरी की आदत बन गई है सामान रोज कम लाती है।
बुजुर्ग ने पूछा कि रज्जू की दुकान से लाई है क्या? उसके यहाँ हर चीज कम मिलती है। भीड़ में से कई आवाजें आईं ‘हाँ हाँ सही कह रहे हो काका’ चंद्रपाल को बड़ा पछतावा हुआ उसने कहा- “काका! आप न आए होते तो मुझे पता ही नहीं चलता कि यह माजरा है और मैं भी बिटिया को ही दोषी मानता।”
— पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’