कृषि पर पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है
भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है, इस परिपेक्ष में देश में कृषि उत्पादकता का स्तर बहुत ही अच्छा होना चाहिए, लेकिन आज देश में बढ़ती जनसंख्या के दौर में उनके लिए खाद्यान्न की आवश्यकतानुसार आपूर्ति सही रूप में सम्भव नहीं हो पा रही है। नये वैज्ञानिक कृषि उपकरणों/उपायों के बावजूद भी अपेक्षित पूर्ति हेतु कृषि उत्पादन में कमी दिखाई दे रही है। मांग व पूर्ति के सूत्र को देखें, तो आगामी समय के लिए निर्धारित लक्ष्य के मानक के अनुसार उत्पादन वृद्धि/योजना निर्धारित करके तैयार की जाती है। घरेलु कृषि उत्पादन का स्तर निर्धारण के बाद भी मानकांे पर खरा नहीं उतरता है। इसका कारण प्रधानतः यही लगाया जाता है कि जनसंख्या के बढ़ते चक्र के कारण यह स्थिति लड़खड़ा जाती है, क्योंकि वर्तमान जनसंख्या व आगामी समय में होने वाली औसतन वृद्धि का अनुपात लगाया जाता है, जबकि वास्तव में उस अनुपात से कुछ अधिक जनसंख्या वृद्धि होने और बाढ़ आदि प्राकृतिक दुष्प्रभावों के कारण कृषि उपज की क्षति के फलस्वरूप इसकी मांग, उत्पादन की अपेक्षा अधिक बढ़ जाती है तथा कृषि योग्य भूमि में अधिकांशतः आवासीय/गैर आवासीय भवनों का अधिक निर्माण होना, जिससे खेती हेतु जमीन औसत से कम रहने आदि कारणों से वितरण प्रणाली अव्यवस्थित हो जाती है, औसत पूर्ति को मानक तैयार करने पर किसी हद तक इस समस्या से निपटा जा सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्य के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के आवासीय/गैर आवासीय भवनों का निर्माण हेतु इस प्रकार की उपयोगी कृषि योग्य भूमि में किया जाना प्रतिबद्धित किया जाना चाहिए।
पूर्व के कुछ वर्षों में उत्पादित खाद्यान्न का सही भण्डारण की व्यवस्था न होने से कई टन अनाज खुले आसमान के नीचे सड़ता रहा। जिसके लिए तत्समय मा0 न्यायालय द्वारा इस प्रकार के अन्न को जरूरतमन्द लोगों को रियायती दरों पर उपलब्ध कराने के जनोपयोगी आदेश दिये गये। निश्चित ही यह बहुसंख्य जनों के लिए हितकारी निर्णय रहा है।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता का स्तर औसतन 03 माह से 06 माह तक के लिए खाद्यान्न तैयार था, जिसका औसत उत्पादन भी अब तराई भावर को छोड़ कर अन्य क्षेत्रों में निरंतर घटता जा रहा है। घटने के मुख्य कारण हैं, कृषि क्षेत्र में उर्वरकता का स्तर घटना। यह स्थिति निरंतर खाद्यान्न संकट को बढ़ाता जा रहा है, जो कि भविष्य में विभीषिका का रूप धारण कर सकता है। फिर समय पर वर्षा का प्रभाव कम होना, जिससे सूखे जैसी स्थिति के कारण भी उत्पादकता घटती जा रही है। मुख्य कारण जो आज भयानक संकट के रूप में वर्तमान में सम्मुख खड़ा वह है बंदरों व लंगूरों द्वारा अधिकांशतः फसल को क्षति पहुँचाना, इससे कृषकों के साथ-साथ अन्य अल्पकालिक सामान्य उत्पादन कर्ताओं में भी कृषि के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है, कारण कि मेहनत कर अन्त में कुछ ही दिन बाद पूर्ण परिपक्वता पश्चात् अपने उपयोगार्थ तैयार फसल को जानवरों- विशेषकर बन्दरों व लंगूरों तथा कुछ-कुछ स्थानों में अन्य जंगली जानवरों द्वारा भी उसे इस स्तर तक क्षति पहुँचाई जाती है कि सारी मेहनत अर्थात् कुछ माह की कड़ी मेहनत का फल व कृषि क्षेत्र पर किया गया व्यय क्षण भर में ही समाप्त हो जाता है। यही नहीं इससे शहरों, गाँवों में आवासीय भवनों के परिसर में अपने दैनिक उपयोग हेतु तैयार की जाने वाली शाक-सब्जी, फलादि के उत्पादन से भी लोगों का मोह भंग होता जा रहा है, क्योंकि ठीक परिपक्वता समय से कुछ समय पूर्व इनको नुकशान पहुँचा हुआ देख कर किसी भी कृषक/उत्पादक को दुःख पहुंचना स्वाभाविक है। इससे उसकी नुकशानप्रद कार्य से मोह घट जाता है। इस कारण गांवों से अधिकांश लोगों का पलायन भी हो रहा है।
वर्तमान में गावों से हो रहे निरन्तर पलायन के कारण ग्रामीण स्तर पर उपजाऊ जमीन/भूमि अधिकांशतः बंजर पड़ती दिखाई दे रही है। इसका दुष्प्रभाव यह महसूस किया जा रहा है कि आने वाले समय में बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए कृषि उत्पादकता की कमी के कारण खाद्य पदार्थों के भयानक अभाव से गुजरना पड़ेगा। इसी प्रकार खेती के प्रति बढ़ते उदासीनता के प्रभाव से आगामी समय खाद्यान्न की कमी के रूप में सबसे बड़ी समस्या का रूप धारण कर लेगी, इसलिए समय रहते यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक होगा कि किसी भी क्षेत्र/भूमिस्वामी को उसकी जमीन के क्षेत्रफल व स्थानीय उर्वरता के आधार पर स्वयं के लिए अन्न उत्पादन करना व उत्पादकता की मात्रा के आधार पर स्थानीय मण्डी को आपूर्ति कर अपना लाभ अर्जित करते हुए राष्ट्रीय विकास में अवश्य ही योगदान देना होगा। ये सभी प्राविधान देश के समस्त नागरिकों को समान रूप से पालनार्थ निर्धारित होने चाहिए, तभी आज के परिपेक्ष में यथोचित विकास सम्भव हो पायेगा। यदि ग्राम/शहर के निवासी की जमीन बिना किसी ठोस कारण के बंजर रहती है तो उसे सरकार सम्बन्धित क्षेत्र में शतत् कृषि कार्य करने वाले योग्य किसान को, जो उस क्षेत्र में कार्य करना चाहता है को, आवंटित/हस्तान्तरित करे अथवा सरकार स्वयं अपने कब्जे में लेकर सरकारी प्रतिष्ठान के तहत उत्पादन करे, ताकि कृषि योग्य बंजर जमीन का पूर्ण सदुपयोग हो सके। कानूनों के अनुपालन में किसी प्रकार भी वर्ग-क्षेत्र आदि का भेद किये जाने से उसके परिपालन में कठिनाई अवश्यम्भावी है। यह ध्यान रखा जाना आवश्यक प्रतीत होता है।
प्राकृतिक प्रकोप अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूस्खलन आदि तो कभी-कभार ही प्रभावी होते हैं, लेकिन पशुओं द्वारा क्षति का प्रभाव एक सतत् प्रक्रिया जैसी बनती जा रही है, इससे अपने आवासीय परिसर में सामान्य कृषि योग्य स्थान होने पर भी दैनिक उपयोगार्थ एक दिन तक की भी सब्जी कोई अपने कीचन गार्डन से प्राप्त नहीं कर पा रहा है, इस कारण उसे एक जून (अर्थात् मात्र एक समय) तक की सब्जी तक के लिए भी बाजार पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है। इस प्रकार आज हर परिवार को बाजार की दुकानों पर ही निर्भर रहना मजबूरी हो चुकी है। दुकानों में बाहर से आने वाली खाद्य सामग्री की उसकी बाहरी/मैदानी क्षेत्रों की उत्पादकता पर ही निर्भर करता है कि इस प्रकार से कब तक औसतन सभी जनों के लिए खाद्यान्न की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सकेगी। यह निश्चित ही विचारणीय विषय है, जिस पर समय रहते गम्भीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।