ग़ज़ल
तनहा रातों का उदास मंजर जब होता है
दिल तन्हाई के साये में सिसक के रोता है
गुम होता है जब यादों के भंवर में यह
आँखों के प्यालों को अश्कों से भिगोता है
आस्तीनों में ही छुपे जब खंजरों को देखा
अंदाजा हुआ तब कैसे कोई नश्तर चुभोता है
न पूछो रुसवाई का आलम हमसे
अहद-ए-गम कैसे कोई अपना बेगाना होता है
तनहा शामों की खुशियाँ न रास आई हमें
दिल अधूरे सपनों की माला पिरोता है
गुलशन में जब रंग भरना चाहा बहार ने
देखा तब यहाँ कारोबार गुलों का होता है
–प्रिया
बहुत खूब .