ग़ज़ल
किस लिए आँसू बहाने हैं किसी के सामने,
हर उदासी टूट जाती इक खुशी के सामने |
चंद सिक्कों से किसी का क़द कभी बढ़ता नहीं
झुकती हैं सौ ग़लतियाँ भी इक सही के सामने |
आदमी के हौसले मजबूत हों तो दोस्तो,
हार जातीं मुश्किलें भी आदमी के सामने |
ज्ञान का दीपक जलाना सीख जाए आदमी,
टिक नहीं पाते हैं तम फिर रौशनी के सामने।
बोलता है आदमी का काम ही संसार में,
मार ही खाता है छल, ज़िंदादिली के सामने |
दौर कोई भी रहा हो, एक जैसे स्वाल थे,
उस सदी के सामने या इस सदी के सामने ||
“छाया”