यज्ञ क्या होता है और कैसे किया जाता है?
ओ३म्
यज्ञ को न जानने वाले बन्धुओं के लिए यज्ञ विषयक जानकारी
यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कार्य वा कर्म को कहते हैं। आजकल यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, हवन वा देवयज्ञ के लिए रूढ़ हो गया है। अतः पहले अग्निहोत्र वा देवयज्ञ पर विचार करते हैं। अग्निहोत्र में प्रयुक्त अग्नि शब्द सर्वज्ञात है। होत्र वह प्रक्रिया है जिसमें अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियां दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं- गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा ओषधियां वा वनस्पतियां जो स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। अग्निहोत्र का मुख्य प्रयोजन इन सभी पदार्थों को अग्नि की सहायता से सूक्ष्मातिसूक्ष्म बनाकर उसे वायुमण्डल व सुदूर आकाश में फैलाया जाता है। हम सभी जानते हैं कि जब कोई वस्तु जलती है तो वह सूक्ष्म परमाणुओं में परिवर्तित हो जाती है। परमाणु हल्के होते हैं अतः वह वायु मण्डल में सर्वत्र वा दूर-दूर तक फैल जाते हैं। वायु मण्डल में फैलने से उनका वायु पर लाभप्रद प्रभाव होता है। जिस प्रकार दुर्गन्धयुक्त वायु स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद व मन के लिए अप्रिय होती है उसी प्रकार से गोघृत व केसर, कस्तूरी आदि नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों के जलने से वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित, स्वास्थ्यप्रद व रोगनाशक हो जाती है। इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप यज्ञ से पूर्व की वायु के गुणों में वृद्धि होकर वह स्वास्थ्यवर्धक, रोगनिवारक, वर्षाजल को शुद्ध करने वाली, प्रदुषण निवारक, वर्षा जल पर आश्रित अन्न व वनस्पतियों को स्वास्थ्यप्रद करने, यहां तक की अच्छी सन्तानों को जन्म देने में भी सहायक होती है।
अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए हम घर में एक यज्ञकुण्ड वा हवनकुण्ड का प्रयोग करते है जो तली में छोटा व ऊपर की ओर बड़ा व खुले मुख वाला होता है। यह पूरा यज्ञ कुण्ड टीन, लोहे व ताम्बे का बना होता है। भूमि खोद कर भी यज्ञ कुण्ड बनाया जा सकता है। आम, पीपल, गुग्गल, कपूर व पलाश आदि अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व पर्यावरण के हितकर काष्ठों की समिधाओं को यज्ञ कुण्ड के आकार में काट कर उन्हें यज्ञकुण्ड में रखा जाता है। कपूर को यज्ञ में प्रयुक्त घृताहुति वाली चम्मच में रखकर उसे दीपक के द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते हुए वेद मन्त्र को बोलकर अग्नि का आधान यज्ञकुण्ड के बीच समिधाओं में किया जाता है। जब अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है तो यज्ञ के विधान के अनुसार परिवार का एक व अधिक सदस्य घृत की और कुछ हवन सामग्री वा साकल्य जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, को लगभग पांच-पांच ग्राम या कुछ अधिक मात्रा में लेकर उसकी आहुतियां वेद मन्त्रों को बोलकर यज्ञ की अग्नि में डाली जाती हैं जिससे अग्नि में पड़ कर वह आहुतियां पूर्णतया जलकर व सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जायें। जिन मन्त्रों को शुद्ध उच्चारित कर आहुतियां दी जाती हैं, उनके अन्त में स्वाहा बोला जाता है। मन्त्र बोलने का प्रयोजन यह है कि इससे यज्ञ करने के लाभ यजमान वा यज्ञकत्र्ता को विदित हो जाये और साथ ही उन मन्त्रों के कण्ठस्थ हो जाने से उनकी रक्षा व सुरक्षा हो सके। इस प्रकार न्यून से न्यून प्रतिदिन प्रातः व सायं सोलह-सोलह व अधिक आहुतियां देने का विधान हमारे पूर्वजों व ऋषियों ने किया है। इस प्रकार से यज्ञ अग्निहोत्र करने में मात्र 10 से 15 या अधिकतम 20 मिनट का समय लगता है। इस प्रक्रिया से वायुमण्डल शुद्ध हो जाता है। यज्ञ की गर्मी से घर का वायु हल्का होकर ऊपर व खिड़कियों-रोशनदानों से बाहर चला जाता है और बाहर का शुद्ध व हितकर वायु घर के अन्दर प्रवेश करता है। इससे घर में रहने वाले सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा वा निरोग रहता है। परिवार के किसी भी सदस्य को रोग नहीं होते और यदि किसी कारण से हों भी जायें तो अल्प मात्रा में उपचार करने से वह शीघ्र ठीक हो जाते हैं। घृत एवं यज्ञ सामग्री के अनेक पदार्थ किटाणु नाशक भी हैं। यज्ञ करने से जल, वायु आदि में व घर में यत्र-तत्र जो सूक्ष्म हानिकारक किटाणु छिपे होते हैं, वह भी नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध वायु मिलने से मनुष्यों का स्वास्थ्य अच्छा होता है व उनके शरीर बलवान, रोगमुक्त व स्वस्थ होते हैं। यज्ञ करने के अनेक अदृश्य लाभ भी होते हैं जो यज्ञ में वेद मन्त्रों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने अपनी गवेषणा व अनुसंधान से यहां तक कहा कि यज्ञ करने वाले के अगले पुनर्जन्म में यह आहुतियां उसको अनेकविध लाभ पहुंचाती हैं। हमारी गवेषणा के अनुसार यह लाभ ईश्वर जीवात्मा को प्रदान करता है। यह जानना भी जरूरी है कि वेद मन्त्र ईश्वर के द्वारा प्रदत्त व निर्मित है। वेदों की कोई भी बात अज्ञान व असत्य नहीं है। वेद मन्त्रों में असम्भव प्रार्थनायें भी नहीं है जो उसके अनुरूप व्यवहार करने से पूर्ण वा सिद्ध न हों। वेद की प्रार्थनायें सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण हैं। अतः वेदों में जो कहा गया है वह जीवन में अवश्य प्राप्त होता है अथवा वह सभी लाभ उसको प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति यज्ञ को करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यज्ञ को करते समय जब यज्ञकुण्ड की अग्नि मन्द होने लगे तो उसमें आवश्यकतानुसार समिधायें रखते रहना चाहिये जिससे हमारी आहुतियां तेज वा प्रचण्ड अग्नि से सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में दूर दूर तक पहुंचती रहे।
अब यज्ञ करने की विधि भी जान लेते हैं। प्रातःकाल यज्ञ से पूर्व तथा सायंकाल यज्ञ के पश्चात “सन्ध्योपासना” करने का विधान है। सन्ध्या का अर्थ है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना। सन्ध्या की सर्वांगपूर्ण अति उत्तम विधि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने पंच महायज्ञ विधि व संस्कार विधि पुस्तकों में प्रस्तुत की है। सन्ध्या के बाद तथा जब सूर्योदय हो गया हो, तब अग्निहोत्र किया जाता है। सबसे पहले गायत्री का मन्त्र का पाठ कर लेना चाहिये जिससे मन यज्ञ करते समय इधर-उधर न भागे और यज्ञ में ही एकाग्र रहे। इसके बाद तीन आचमन अर्थात् अल्प मात्रा में जल पीने का विधान है जो आचमन के मन्त्रों को बोलकर किये जाते हैं। इससे कफ आदि की निवृत्ति होकर वाणी का उच्चारण शुद्ध होता है। इसके पश्चात बायें हाथ की अंजलि में जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से शरीरस्थ इन्द्रियों के स्पर्श करने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर से इन्द्रियों व शरीर के स्वस्थ, निरोग व बलवान होने की प्रार्थना है। तत्पश्चात 8 स्तुति-प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का उनके अर्थ को विचार करते हुए या पृथक से बोल कर गायन वा उच्चारण करने का विधान है। इसके बाद दीपक जला कर उससे कपूर को प्रज्जवलित कर यज्ञ कुण्ड में उस कपूर की अग्नि का आधान मन्त्रों को बोलकर किया जाता है जो मात्र 25 से 30 सेकेण्ड्स में हो जाता है। अग्न्याधान के बाद चार मन्त्रों को बोलकर काष्ठ की 3 समिधायें प्रदीप्त अग्नि पर रखने का विधान है। समिदाधान के बाद एक ही मन्त्र को पांच बार बोल कर घृत की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात चारों दिशाओं में जल सिंचन का विधान है। यह सभी कार्य पृथक पृथक मन्त्रों को बोल कर किये जातें हैं। जल सिंचन के बाद घृत की दो आघाराज्य व दो आज्यभाग आहुतियां दी जाती हैं। इसके बाद दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं। प्रातः काल की 12 आहुतियां एवं सायं काल की भी 12 आहुतियां हैं। इनके बाद यज्ञकर्त्ता यजमान यदि अधिक आहुति देना चाहें तो गायत्री मन्त्र को बोलकर देने का विधान है। इसके बाद पूर्णाहुति तीन बार ‘ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।’ बोलकर की जाती है। इससे पूर्व यदि यजमान स्विष्टकृदाहुति व प्राजापत्याहुति देना चाहे तो सम्बन्धित मन्त्रों को बोल कर दे सकता है। इस प्रकार से दैनिक यज्ञ सम्पन्न होता है। बहुत से लोग प्रातः व सायं यज्ञ न कर सायंकाल के 4 मन्त्रों को भी प्रातःकाल के यज्ञ में सम्मिलित कर आहुतियां दे देते हैं। इस प्रकार से यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यज्ञ के बाद हिन्दी में ‘यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए’ यह यज्ञ प्रार्थना भी की जा सकती है और उसके बाद शान्तिपाठ का मन्त्र बोलकर यज्ञ समाप्त हो जाता है। यह अग्निहोत्र वा देवयज्ञ करने की विधि व विधान है। यह भी ध्यान रखना अत्यावश्यक है यज्ञ पूर्णतः अंहिसात्मक कर्म है, इसमें किंचित किसी प्राणी की हिंसा निषिद्ध है। ऐसा होने यज्ञ यज्ञ न होकर पापकर्म बन जाता है।
सभी मनुष्य श्वास में मुख्यतः आक्सीजन लेते और कार्बन डाइआक्साइड गैस छोड़ते हैं। इससे वायु प्रदुषित होती है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने प्रयोजन से की गई दूषित वायु को शुद्ध करे। इसी प्रकार हम अपने निजी प्रयोजन से वायु सहित प्रकृति को भी प्रदूषित करते हैं। हमारा कर्तव्य है कि रोग व दुःखों से बचने व अन्यों को बचाने के लिए हम वायु, जल व प्रकृति को शुद्ध रखें व यज्ञ आदि क्रिया कर सबको शुद्ध करें। जो मनुष्य, स्त्री व पुरूष, ऐसा नहीं करता वह पाप का भागी होता है। यज्ञ न करना पाप करना है क्योंकि इससे हमारे द्वारा किये गये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों से अन्य प्राणियों को दुःख होता है। यदि मनुष्य इस जन्म व परजन्मों में सुखी होना चाहता है तो उसे यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ का अन्य कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं करेगा तो कालान्तर में परिणाम ईश्वर की व्यवस्था से इसके सम्मुख अवश्य आता है। इसके साथ ही यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी अनेक प्रकार से भी वंचित हो जाता है।
धर्म की एक शब्द की एक परिभाषा है ‘‘सत्याचरण”। सत्याचरण में माता-पिता की सेवा सुश्रुषा सहित प्राणिमात्र पर दया व उनके भोजन का प्रबन्ध करने के साथ, विद्वान अतिथियों की सेवा, उनसे सद्व्यवहार, उनका अन्न, धन, वस्त्र दान द्वारा सम्मान एवं यथासमय ईश्वरोपासना-सन्ध्या व अग्निहोत्र कल्याण के हितैषी सब मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। जो करेगा वह ईश्वर से इन कर्मों का लाभ व फल पायेगा और जो नहीं करेगा वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होगा। यह हमने बहुत संक्षेप में अग्निहोत्र देव यज्ञ पर प्रकाश डाला है। यज्ञ पर बहुत साहित्य उपलब्ध है। यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म को कहते हैं। इसका अर्थ है देवों की पूजा, उनसे संगतिकरण और सबको पात्रतानुसार दान देना। इसके अनुसार माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों का सम्मान व सेवा-सत्कार भी यज्ञ है। इनके साथ संगतिकरण कर उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त करना और उससे जनकल्याण व प्राणियों का हित करना भी यज्ञ है। इसी प्रकार से अपनी सामथ्र्यानुसार सुपात्रों को अधिक से अधिक दान देकर देश व समाज को समरस, एकरस व गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार यथाशक्ति सुख-सुविधायें प्रदान करना भी यज्ञ के अन्तर्गत आता है। लेख को समाप्त करने पर यह अवगत कराना है कि इस लेख में स्थानाभाव के कारण हम यज्ञ के मन्त्रों को प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इसके लिए पाठक नैट पर उपलब्ध पुस्तक को डाउनलोड कर सकते हैं या आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेताओं से क्रय कर सकते हैं। सहायतार्थ यूट्यूब पर उपलब्घ वीडियोज् को भी देखा जा सकता है। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , विस्तार से आप का लेख पड़ा .बेछक मुश्किल हिंदी के लफ्ज़ मुझे समझ नहीं आते किओंकि मैं ने इतनी हिंदी पडी नहीं है ,फिर भी बहुत कुछ समझ पाया हूँ . यहाँ तक इस यग्य का पर्योजन है ,मैं समझ गिया हूँ लेकिन अब इस ज़माने में यह यग्य पूंजीकरण हो गिया है ,इस से पैसा कमाया जाता है ,बहुत दफा तो यग्य और दान की कीमत भी ज़िआदा से ज़िआदा वसूल की जाती है .कुछ हालतों में तो यह इतना complicated बना दिया है कि इस में यग्य का मकसद छिप जाता है . मेरे समधी की लड़की ने एक कट्टर हिन्दू फैमिली के लड़के से शादी की थी और मैंने शादी का विडिओ भी देखा था . सच कहें तो हमें यह सब कर्म काण्ड ही लगा .दुसरे हिन्दू धर्म की फिलासफी पाप पुन्य और अगले जनम को अच्छा बनाने पर ही टिकी है . मेरा विचार यह भी है कि अपने विचारों को सही कह कर दुसरे को गलत साबत करना भी कोई धर्म नहीं है किओंकि इस से विवाद शुरू हो जाता है जो किसी नतीजे पर नहीं पौह्न्चता . अगला जनम एक ssumption पर निर्धारत है ,यह एक सोच है ,वर्ना किसी ने ऊपर जा कर नहीं देखा .नरक स्वर्ग्य का चित्रण हम अपने अपने धर्म के मुताबक करते हैं . महात्मा बुध ने पर्त्मात्मा के बारे में इतना नहीं बोला जितना इंसान को यहाँ इस धरती पर रह कर ही एक अछे और नेक इंसान बनने पर जोर दिया .उन के विचार अगर सभी लोग अपना लें तो समाज का कलिआन्न हो सकता है लेकिन बुध के अहिंसा की फिलासफी ने भारत का नुक्सान भी बहुत किया है . कलिंग की लड़ाई के बाद अशोक नें बुध धर्म ग्रहण करके अहिंसा का रास्ता अपनाया था जिस से भारत की बहुत उन्ती हुई लेकिन डिफैंस की ओर धियान देना ही छोड़ दिया था ,जिस के नतीजे बिदेशिओं के हमले में तब्दील हो गए किओंकि धर्म को बचाने के लिए तलवार की जरुरत होती है .धर्म को बचाने के लिए पंजाब में सिख धर्म का आगाज़ हुआ ,जिस के कारण पंजाब में सिख राज काएम हुआ और हम मुसलमानों की हकूमत और उन के ज़ुल्मों से छुटकारा पा गए .मनमोहन भाई ,आप सुआमी दयानंद जी को बहुत मानते हैं और मैं भी उन की फिलासफी को तहेदिल से मानता हूँ किओंकि इस से समाज का कलिआन होता है लेकिन बहुत बातों से मैं सहमत भी नहीं हूँ और मैं किसी को गलत साबत भी करने के हक़ में नहीं हूँ किओंकि इस से किसी को ठेस पौहंच सकती है .विचारों को सांझा करने से गियान में इजाफा होता है . यग्य की जानकारी के लिए धन्यवाद .
नमस्ते एवं लेख पसन्द करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। विस्तार से अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद। आपने मेरी कठिन हिन्दी को समझने का प्रयास किया और यज्ञ के प्रयोजन को समझ गये हैं, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं और हार्दिक धन्यवाद देता हूं।
बहुत से पण्डितों व हमारे आर्यसमाजी बन्धुओं ने भी शायद यज्ञ का पूंजीकरण कर दिया है। कुछ पुरोहित ऐसे हैं जो कुछ भी मांगते नहीं हैं, कठोर तपस्या का जीवन व्यतीत करते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो बहुत अधिक दक्षिणा लिये बिना सन्तुष्ट ही नहीं होते। विवाह आदि के अवसर पर तो बहुत अधिक दक्षिणा पौराणिक व आर्यसमाजी पुरोहित भी प्रायः लेते हैं जिससे मुझ जैसे व्यक्ति को भी क्लेश व दुःख होता है। यज्ञ कठिन व जटिल है नहीं परन्तु इसे ऐसा कुछ लोगों ने बना दिया है। यज्ञ का मुख्य प्रयोजन तो ईश्वर निर्मित वेद मन्त्रों को बोल कर गोघृत व शक्कर आदि, सुगन्धित पदार्थ केसर, कस्तूरी आदि, वनस्पति और ओषधि आदि की आहुतियां यज्ञ कुण्ड में डालना है जिससे कि वायु मण्डल शुद्ध व पवित्र बने। यज्ञ वैदिक धर्म व संस्कृति अर्थात् मानव धर्म व संस्कृति का आधार व नाभि-केन्द्र है। इसका करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। जो करेगा वह ईश्वर से सुख, समृद्धि व परजन्म में अच्छा व श्रेष्ठ मानव व देव कोटि का जीवन पायेगा। जो नहीं करेगा वह इन सुख सुविधाओं से वंचित होगा। हम भारत में अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में न पढ़ा कर जानते हुए भी उन पब्लिक स्कूलों में पढ़ाते हैं जहां बच्चों को कमर्शियल अच्छी शिक्षा दी जाती है जिससे बच्चे पढ़ लिख कर धन कमाने की मशीन बन जायें। जानते हुए भी कोई यह नहीं कहता कि स्कूल की फीस आवश्यकता से कहीं अधिक है। इसी प्रकार यज्ञ में भी आई कमियों व खराबियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये। यज्ञ करना छोड़ देना मेरे विचार में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। हम अपने घर में अपने आप यज्ञ करते हैं। यज्ञ प्रतिदिन करने का विधान है। हमें किसी को दक्षिणा नहीं देनी पड़ती। मात्र 30 मिनट में सन्ध्या व हवन दोनों हो जाते हैं। एक समय के यज्ञ में मात्र तीस से पचास रूपयों का खर्च होता है। इससे मुझे जो प्राप्ति हुई है वह मुझे ज्ञात है। दो बार तो भयंकर एक्सीडेण्ट में मेरी जान बची है। मैंने नहीं अपितु मेरे पौराणिक मित्रों ने इस प्रकार जीवन रक्षा को यज्ञ का ही चमत्कार बताया था। मेरी आत्मा भी इससे सहमत है। अतः दूसरों के कल्याण की भावना से मैं अपना यह लेखन कार्य करता हूं और मैंने इसी कार्य में अपना जीवन लगाया हुआ है। किसी की सत्य भावना को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं अपितु सत्य के प्रचार प्रसार के लिए जिसे मैं, अध्ययन व चिन्तन-मनन के बाद, सच्चा व असली धर्म मानता हूं। अज्ञानी लोग सत्य को उतना समझ नहीं पाते इसलिए केवल अपनी बात कहना सभी सज्जन व विद्वान मनुष्यों का कर्तव्य है। जो करते हैं वह प्रशंसनीय हैं। जो नहीं करते वह कर्तव्य पालन न करने के दोषी भी अवश्य हैं।
हमारे पौराणिक भाई जिस तरह से यज्ञ करते व कराते हैं वह हमें भी विज्ञान से दूर कर्मकाण्ड ही लगता है। इसमें वह अपनी स्वतन्त्रता, अज्ञान व स्वार्थ को मिला देते हैं। पौराणिकों में वेदों का ज्ञानी शायद ढूढंने से भी मुश्किल से मिले। पुर्नजन्म का सिद्धान्त एक ज्ञान, विज्ञान, सत्य व वास्तविकता है। वैदिक, आर्य, हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन आदि धर्मों में ईश्वर को जीवात्मा को अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, शाश्वत माना गया है। यदि ऐसा है, यह वास्तविकता और सच्चाई है, तो अनादि आत्मा का पुनर्जन्म तो इसी से सिद्ध हो जाता है। हम मृत्यु और जन्म के चक्र को प्रतिदिन साक्षात अपनी आंखों से देखते हैं। यदि यह सत्य न होता तो रोज रोज नई नई आत्मायें कहां से व कैसे आ रही है। दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करने पर आत्मा को अनादि, नित्य, अजन्मा, अनुत्पन्न व अमर मानना ही पड़ता है। किसी भी योनि में होने वाला जन्म जीवात्मा का पुनर्जन्म ही होता है। इसमें मुझे तो किंचित भी सन्देहा नहीं है। आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म और पाप-पुण्य पर आधारित जीवन व मृत्यु व सुख-दुःख रूपी भोग संसार की एक सच्चाई है। यह ज्ञान व भरोसा ईश्वर की कृपा होने पर ही किसी मनुष्य को प्राप्त होता है।
सत्य का निर्धारण अध्ययन, शास्त्र चर्चा, तर्क-विर्तक, शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर आदि से ही होता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो मत व मजहब वा तथाकथित धर्म बढ़ते ही जायेंगे। इससे अज्ञानियों व स्वार्थियों को लाभ होगा। महर्षि दयानन्द जी ने जो खण्डन व मण्डन किया, वह सत्य के निर्धारण और संसार के मनुष्यों का वर्तमान जन्म व परजन्म सुधारने के लिए किया था। यदि कोई फिर भी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारें, तो उसमें ज्ञानी व सत्याग्रही महान पुरूषों का कोई कसूर नहीं है। सत्य के प्रचार प्रसार व मत-मतान्तरों की मान्यताओं के प्रचार प्रसार में जमीन आसमान का अन्तर है जिसे विवेक से ही जाना जाता है। माता पिता भी अपनी सन्तानों की बुरी बातों पर प्रताड़ना करते हैं। गुरू व आचार्य भी ऐसा ही करते हैं। डाक्टर व चिकित्सक भी ऐसा ही करते हैं। दर्जी कपड़े को काटता है यह खण्डन है और आवश्यकता के अनुसार उसे सिलता है, यह मण्डन है। यह खण्डन व मण्डन जीवन के हर क्षेत्र में कार्यरत है। जब एक बीमार आदमी डाक्टर के पास चिकित्सा कराने जा सकता है तो एक मत-मतान्तर के मानने वाले को भी सत्य व ज्ञानी विद्वान के पास जाकर अपनी सभी मान्यताओं की सत्यता को पूछना व समझना चाहिये। लकीर का फकीर बनकर इस जन्म को तो भौतिक द्रव्यों से भरा जा सकता है परन्तु परजन्म में इसका प्रभाव अनिवार्यतः अच्छा नहीं होगा। हम अपने एक भावी लेख में स्वामी दयानन्द द्वारा वेदों के आधार पर स्वीकार किये सत्य सिद्धान्तों को भी प्रस्तुत करेंगे जिससे उन मान्यताओं की सत्यता को पाठक जान सकें। अगला जन्म अनुमान व कल्पना पर आधारित नहीं अपितु एक वास्तविकता है। यह सबकी अपनी सोचने की सामथ्र्य पर निर्भर करता है। धर्म केवल एक है और अन्यों को मत, मजहब व सम्प्रदाय आदि ही कह सकते हैं। धर्म केवल सत्य मान्यताओं का नाम है। प्रायः लोग कहते हैं कि पुनर्जन्म एक सोच है वर्ना किसी ने ऊपर जाकर नहीं देखा। मुझे कहना है कि हम लोग वैज्ञानिकों की उन बातों को मानते हैं जो वह सूर्य, चन्द्र व अन्य अनेकानेक विषयों पर कहते हैं। कोई वैज्ञानिक आज तक सूर्य पर नहीं गया और न ही जा सकता है। ऐसा ही सूर्य मण्डल से इतर अन्य सूर्य मण्डलों के बारे में खगोल ज्योतिष विषयक ज्ञान है। कोई इन पर गया नहीं परन्तु यह विज्ञान, बुद्धि व तर्क आदि प्रमाणों पर आधारित होने से सब इसे मानते हैं। ऐसा ही पुनर्जन्म का सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त ईश्वरीय ज्ञान वेदों में सृष्टि के आरम्भ से है। तर्क, युक्ति, अनुमान व अन्य प्रमाणों से भी यह सत्य सिद्ध किया जाता है। इसको मानना ज्ञान और न मानना भ्रान्ति व मिथ्या ज्ञान की श्रेणी में ही कहा जा सकता है।
महात्मा बुद्ध की अनेक बातों से हम सहमत हैं। उन्होंने गलत बातों का विरोध किया, वह प्रशंसनीय है। यदि वह स्वामी दयानन्द की तरह स्वयं वेदों का अध्ययन करते और फिर वेदों की किसी गलत बात का खण्डन करते तो वह उत्तम होता। उन्होंने वेदों का त्याग ही कर दिया और उसमें क्या गलत है यह जानने व बताने का प्रयत्न ही नहीं किया। जिस नेक इंसान के बनने की बात उन्होंने कही वह तो वेदों में एक स्थान पर नहीं, अनेक स्थानों पर कहा गया है। वेदों के पदों ‘मनुर्भव’ में कहा गया है कि मनुष्य तू मनन कर, सत्य व असत्य का चिन्तन कर, असत्य को छोड़ और सत्य का ग्रहण व उसे धारण कर। काश की महात्मा बुद्ध ने वेदों को पढ़ा होता और उनके सत्य अर्थ व मान्यताओं को जाना होता, तो जो हानि, मुख्यतः राज रक्षा के क्षेत्र में, अंहिसा विषयक उनके विचारों से हुई, वह न होती। मनुष्यों व पशु-पक्षियों पर दया करना धर्म है, अंहिसा करना धर्म और हिंसा करना पाप है, परन्तु हिंसकों के प्रति अंहिसा भी अधर्म और उनके प्रति हिंसा करना ही धर्म है। उनके विचारों न अपना कर यदि संसार के लोग वेदों के विचारों को यदि अपनाते हैं तो मुझे लगता है कि इससे मानवता का सर्वाधिक कल्याण होगा। आपने भी स्वीकार किया है कि बुद्ध की अंहिसा के दर्शन ने भारत का बहुत नुकसान किया है। ऐसा ही मेरा भी मानना है। आपकी इन पंक्तियों से पूरी तरह सहमत हूं कि ‘कलिंग की लड़ाई के बाद अशोक ने बुद्ध धर्म ग्रहण करके अहिंसा का रास्ता अपनाया था जिस से भारत की बहुत उन्नति हुई लेकिन डिफैंस की ओर ध्यान देना ही छोड़ दिया था। जिसके नतीजे विदेशियों के हमले में तब्दील हो गए क्योंकि धर्म को बचाने के लिए तलवार की जरूरत होती है।’ आपकी अन्य सभी बातों से सहमत हूं। इतना ही कहना है कि मनुष्य को सत्य को जानने व उसे ग्रहण करने में सदैव तत्पर रहना चाहिये और असत्य को जानने व उसे छोड़ने में भी तत्पर रहना चाहिये। दूसरों के कल्याण के लिए किया गया खण्डन अच्छा होता है और अपने मत की अनुचित बातों को मनवाने के लिए दूसरों का खण्डन व धर्मान्तरण करना गलत है। यह मेरे निजी विचार हंै। केवल सत्य ही मनुष्योन्नति का प्रमुख कारण व आधार है। यदि मेरी लिखी कोई बात आपको अच्छी न लगे तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं।
मनमोहन भाई , आप का जवाब पड़ कर बहुत अच्छा लगा .आप तो गियानी हैं और आप जैसा होना बहुत कम लोगों के भाग्य में होगा . इस में से ५०% भी लोग चलने लगें तो संसार कलिआन संभव हो सकता है .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने लेख पर प्रतिक्रिया देकर इसमें चार चाँद लगा दिए। मैं ह्रदय से आपका आभारी हूँ। मैं एक साधारण मनुष्य हूँ। जो भी करता हूँ उसमे मेरी आत्मा एवं ईश्वर की प्रेरणा होती है। मैंने सामाजिक क्षेत्र में जो कुछ किया है, उसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं स्वंयम से वा ईश्वर की मुझ पर हो रही कृपा से पूर्ण संतुष्ट हूँ। आपका आशीर्वाद भी मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं है। सादर।