गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल – हारता है प्यार

पिस गई अब भावनायें , हारता है प्यार
दब गई इंसानियत ही , स्वार्थ में हर बार

आज माँ बापू हुए हैं , बालकों पे भार
जन्मदाता आज इतना , क्यों हुआ लाचार

काटना मत अब विपिन को, प्राण के आधार
हो सके तो और रोपो , पौध पग-पग प्यार

सन रही हैं खून में क्यों, सब दिशाएँ आज
भेद क्यों फैला जगत में , इस सदी के द्वार

ताप भू की बढ़ रही है , शीत गुम सुम इधर
ऋतु बिसरती राह अपनी , कुछ करो उपचार

हथकड़ी को नप रहे हैं , हाथ सबके आज
अब शराफत झेलती है , खूब कुंठा खार

“छाया”

छाया शुक्ला

छाया शुक्ला "छाया" प्रकाशित पुस्तक "छाया का उज़ास"