गांधी, मालवीय जी एवं डॉ हेडगेवार
गांधीजी न तो दयानन्द और अरविन्द के समान मेधावी पंडित एवं बहुपठित विद्वान् थे, न उनमें विवेकानन्द की तेजस्विता थी। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह – ये, जो हिन्दू संस्कृति के सदियों से आधार-स्तंभ थे, उन्होंने अपने जीवन में साकार किया। वे जो कहते थे, वही करते थे। साधनापूर्वक उन्होंने सभी प्राचीन सत्यों को अपने जीवन में उतारकर संसार के सामने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि जो उपदेश अनन्त काल से दिए जा रहे हैं, वे सचमुच ही जीवन में उतारे जाने योग्य हैं। उनके इन्हीं गुणों के कारण भारत का विशाल जनमानस उनका अनुयायी और परम भक्त बन गया, जिसका लाभ कांग्रेस और पूरे देश को आज़ादी प्राप्त करने में मिला। उन्होंने कई बार स्वयं को सनातनी हिन्दू घोषित किया था, पर उनका हिन्दुत्व किसी धर्म का विरोधी नहीं था। वे “ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान” में हृदय से विश्वास करते थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। इसके लिए कई बार हिन्दुओं को रुष्ट करके भी उन्होंने मुसलमानों का समर्थन किया था, खिलाफ़त आन्दोलन का समर्थन और देश के विभाजन को स्वीकार कर लेना, उनके उदाहरण हैं। उन्हें अन्त अन्त तक भी यह विश्वास था कि वे मुसलमानों का हृदय परिवर्तन करने में सफल होंगे। लेकिन मुसलमानों ने जिन्ना के प्रचार पर अधिक विश्वास किया और कांग्रेस से अधिक मुस्लिम लीग का साथ दिया। गांधीजी राजनीति में भी शुचिता के प्रबल समर्थक थे लेकिन उनकी ही पार्टी कांग्रेस ने आज़ादी के बाद इससे किनारा कर लिया। आज की तिथि में विश्व गांधीवाद से ज्यादा प्रभावित है, भारत कम।
महामना मालवीय गांधीजी के समकालीन थे। उनमें दयानन्द और अरविन्द का मेधावी पांडित्य तथा विवेकानन्द की तेजस्विता, एक साथ थी। वे एक बड़े ही ओजस्वी वक्ता थे। उनमें अद्भुत राजनीतिक सूझबूझ थी। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे चार बार अध्यक्ष रहे। वे भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे। शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ रहे पश्चिमी प्रभाव से वे आहत थे। भारतीय मूल्यों के आधार पर आधुनिक और परंपरागत शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने राजनीति छोड़कर भविष्य-निर्माण का संकल्प लिया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके उन्होंने इसे साकार भी किया। वे एक कट्टर हिन्दू थे, लेकिन, उनका हिन्दुत्व सर्वधर्म समभाव, धार्मिक सहिष्णुता और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास करता था। उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय के माध्यम से हिन्दू जागरण का ऐसा केन्द्र खड़ा किया जो आनेवाली कई पीढ़ियों को नई दिशा प्रदान करता रहेगा।
डा. केशव बलिराम हेडगेवार महात्मा गांधी और महामना मदन मोहन मालवीय के समकालीन थे। आरंभ में वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। बाद में उन्होंने महसूस किया कि हिन्दू अपने दुश्मन आप हैं। वे जातिवाद, छूआछूत, भाषा, प्रान्त और ऊँच-नीच की सीमा में इस तरह विभाजित हैं कि सिर्फ शव की अन्तिम यात्रा में ही वे एक दिशा में चलते हैं। बाकी समय कई पंथों और संप्रदायों में बँटे हिन्दू अपनी-अपनी डफली अलग-अलग बजाते हैं। इनकी बुराइयों को दूर करके इन्हें एक मज़बूत संगठन की डोर से बांधने की आवश्यकता उन्हें महसूस हुई। देश की आज़ादी हो या भविष्य का निर्माण, इसके लिए जिस शक्तिशाली और चरित्रवान हिन्दू की कल्पना स्वामी विवेकानन्द ने की थी उसको मूर्त रूप देने के लिए डा. हेडगेवार ने सन् १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। भारत में जितने भी गैर हिन्दू हैं, लगभग वे सभी (९८%) हिन्दू से ही धर्मान्तरित हैं। हिन्दुस्तान में रहनेवाले सभी लोगों के पुरखे एक ही थे और संस्कृति, सभ्यता भी एक ही थी। हालांकि इस तथ्य को गांधी, जिन्ना और इकबाल भी जानते थे, लेकिन सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करने या उद्गोषणा करने से अपने को दूर रखते थे।
डा. हेडगेवार ने साह्स और पूर्ण दृढ़ता से यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से देश और विश्व के सामने रखी। उनके अनुसार भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है, जो इस देश को अपनी मातृभूमि, भारत माता को अपनी माता को मानता है तथा इस मातृभूमि को देवभूमि मानते हुए इसे परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने के लिए तन, मन और धन से पूर्णरूपेण समर्पित हो। हिन्दुत्व में घुस आई जाति, छूआछूत, भाषावाद, प्रान्तवाद, संप्रदायवाद आदि बुराइयों को दूर करते हुए एक शक्तिशाली हिन्दू संगठन ही उनका अभीष्ट था। उन्होंने जो बिरवा १९२५ में लगाया था, आज वटवृक्ष बनकर विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के रूप में खड़ा है। इस संगठन पर आज़ादी के पहले अंग्रेजों की और उसके बाद कांग्रेस की वक्रदृष्टि हमेशा रही। कांग्रेसी शासन ने तरह-तरह के भ्रामक आरोप लगाकर इसे तीन-तीन बार प्रतिबंधित किया, परन्तु, यह संगठन कुन्दन की भाँति पहले से ज्यादा निखरकर सामने आया। आज यह भारत ही नहीं विश्व के लगभग समस्त हिन्दुओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र बन गया है। देश को दो-दो अतुलनीय प्रधान मंत्री प्रदान करने के कारण इसकी स्वीकार्यता विश्वव्यापी हो गई है।
— विपिन किशोर सिन्हा, स्वतंत्र चिंतक एवं विचारक
राजनीतक बातों से हट कर मैं तो सिर्फ सभ्य्चारक बात ही करूँगा . आज सुबह ही एक टीवी चैनल पर देखा कि एक बूड़े दलित ने जिंदगी में पहली दफा वोट डाला है किओंकि जब भी वोह वोट डालने जाता था तो उच्च वर्गय्य लोग उसे एक तरफ धकेल देते थे . किया इस धरती पर इतने बुरे लोग भी हो सकते हैं जो हज़ारों सालों से अपने ही धर्म के लोगों के साथ इतना वित्करा करते हों ? यहाँ अंग्रेजों ने हमारे साथ भी कभी बहुत वित्क्रा किया था लेकिन इतना नहीं जितना हिन्दू समाज में है . हमें यहाँ हर जगह बराबर के हक़ मिले हुए हैं ,और शाएद यही वजह है कि जो दलित इंडिया से यहाँ आये थे उन के साथ हमारे उच्च वर्गीय लोग मिलते हैं ,उन के शादी विवाह पर जाते हैं, उन के घरों में खाने बनाते भी हैं और खाते भी हैं और यहाँ तक कि दलितों के बच्चे उच्च वर्गीय बच्चों के साथ शादीआं भी कर रहे हैं . हम ने तो यहाँ पचास सालों में इतनी उन्ती कर ली लेकिन भारत अभी तक वहीँ खड़ा है और यह देश का बहुत बड़ा नुक्सान हो रहा है किओंकि किया मालुम इन दलितों में कितने टैलेंट भरपूर लोग थे जिस का देश को कितना नुक्सान हुआ और इस का अंदाजा लगाने के लिए किसी के पास फुर्सत नहीं . हिन्दू सुआमी दया नन्द जी को ही समझ लेते तो कुछ सुधार हो सकता था लेकिन यह लोग अपनी जगह से हिलेंगे नहीं .
आपका यह कहना गलत है कि गांधी जो कहते थे वही करते थे। गांधी ने देश को वचन दिया था कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा। परंतु उनके देखते-देखते देश बँट गया और गांधी उसके विरोध में प्रतीकात्मक अनशन भी नहीं कर सके। क्यों? जबकि उनको अपने वचन के अनुसार आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी।