प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी की महर्षि दयानन्द को श्रद्धांजलि
ओ३म्
महर्षि दयानन्द समस्त विश्व के गुरू वा आचार्य थे। उन्होंने पक्षपात रहित होकर संसार के सभी मनुष्यों के प्रति भ्रातृभाव रखते हुए उनके कल्याण की भावना से वेदों के ज्ञान से उनका शुभ करने के लिए वेद प्रचार का प्रशंसनीय व अपूर्व कार्य किया था। बहुत से मताग्रही लोगों ने उनके यथार्थ अभिप्राय को जानने का प्रयास नहीं किया और उनके विरोधी बन गये। हम विदेशी मतों व सम्प्रदायों की बात तो क्या करें, स्वयं हमारे देश के वेद को मानने वाले पौराणिक लोगों ने उनका विरोध ही नहीं किया अपितु अनेक लोगों ने उनके प्राणहरण की अनेक बार कुचेष्टायें की। महर्षि ने जब वेद प्रचार कार्य आरम्भ किया था, तभी से वह जानते थे कि देश व विदेशी मतों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उनका विरोध करेंगे और उनके प्राण संकटग्रस्त रहेंगे। इस पर भी उन्होंने वेद प्रचार के मार्ग को चुना था क्योंकि सत्य को जाने, अपनायें व धारण किये बिना मनुष्य जाति की उन्नति सम्भव नहीं थी। यह सब कुछ होने पर भी अनेक मत-मतान्तरों के अनेक सुधी व निष्पक्ष लोगों ने स्वामी जी व उनके कार्यों के महत्व को समझा था और उन्होंने निःसंकोच भाव से उसे सार्वजनिक रूप से प्रकट भी किया था। ऐसे ही एक ‘युगपुरूष हिन्दी के साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी’ थे। आज हम उनकी महर्षि दयानन्द को दी गई श्रद्धाजलि के शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस श्रद्धाजंलि में प्रस्तुत शब्दों को बार-बार पढ़ने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि संसार के सभी मतावलम्बी निष्पक्ष होकर महर्षि दयानन्द व उनके कार्यों का अवलोकन करते तो भले ही वह उनके अनुयायी बनते या न बनते, परन्तु उनका निष्कर्ष अवश्य ही महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के विचारों के अनुरूप होता। यहां यह भी उल्लेख कर दें कि हम कुछ समय पूर्व उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी के महर्षि दयानन्द के चित्र को अपने घरों में लगाने के समर्थन व यह चित्र लगाना मूर्तिपूजा न होकर उन्हें किस प्रकार से उनके कर्तव्यों की प्रेरणा करता है, सम्बंधी विचारों को प्रस्तुत कर चुके हैं। उसकी पुष्टि महावीर प्रसाद द्विवेद्वी जी के लेख से भी हो रही है। अब द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत विचार प्रस्तुत हैं:
‘‘सनातन धर्मावलम्बियों की सन्तति होने और देवी–देवताओं के सम्मुख सिर झुकाने पर भी मेरे हृदय में श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है। वे बहुत बड़े समाज–संस्कर्ता, वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल भाष्यकर्त्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे। उन्होंने जिस समाज की संस्थापना की है, उससे भी अपने देश, अपने धर्म और अपनी भाषा को बहुत लाभ पहुंच रहा है। मैं स्वामी जी की विद्वता और उनके कार्यकलाप को अभागे भारत के सौभाग्य का सूचक चिन्ह समझता हूं। उनका चित्र चिरकाल तक मेरे नेत्रों के सामने रहकर मेरी आत्मा को बल का तथा मेरे बैठने के कमरे को शोभा का, दान देता रहा है। स्वामी जी के विषय में इससे अधिक लिखने की शक्ति इस समय मेरे जराजीर्ण शरीर में नहीं। अतएव–
धन्यंच प्राज्ञमूर्धन्यं दयानन्दं दयाधनम्।
स्वामिनं तमहं वन्दे वारं वारंच सादरम्।।”
हम अपने पौराणिक विद्वानों से पूछना चाहिते हैं कि क्या वह श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के इस कथन से असहमति रखते हैं? जो व्यक्ति महर्षि दयानन्द सरस्वती के किसी व किन्हीं विचारों से असहमति रखते हैं वह स्वयं से प्रश्न करें कि क्या उन्होंने निष्पक्ष भाव से महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन किया है? हमारे पास ऐसे अनेकों प्रमाण हैं कि जब किसी निष्पक्ष पौराणिक विद्वान ने महर्षि दयानन्द के विचारों व सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया तो वह सदा सदा के लिए उनका अनुयायी बन गया। अनेक मतों में भी उनके ऐसे अनुयायी हुए या बने हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हम स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती का नाम प्रस्तुत करते हैं जो कट्टर पौराणिक साधू थे परन्तु रोगग्रस्त होने पर एक आर्यसमाजी द्वारा उनकी सेवा सुश्रुषा करने और विदाई के समय उस बन्धु द्वारा उन्हें कपड़ें में लपेट कर सत्यार्थप्रकाश भेंट करने और उनसे विनती करने कि जब समय मिले इस पुस्तक को अवश्य पढ़े। सेवाभावी आर्यसमाजी भक्त के इन शब्दों व विपदकाल में उनकी सेवा ने स्वामीजी को पुस्तक पढ़ने के लिए विवश किया और पुस्तक पढ़ने के बाद स्वामी जी पूरी तरह बदल गए और महर्षि दयानन्द के अनुयायी बन गये। उन्होंने मृत्यु पर्यन्त आर्य सन्यासी बनकर देश व वैदिक धर्म की अनेकविध प्रशंसनीय सेवा की। उनका उत्तम कोटि का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सन्मार्ग दर्शन” सभी वेद प्रेमियों के लिए पठनयी एवं संग्रहणीय है। एक नही ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून.