कलियुग की अहिल्या
अहिल्या की तरह शिला बनी जनता
सहती रही शीत, ताप, वर्षा,
कितने शासक आये
कितने गये
किसी ने सताया
किसी ने सहलाया
लेकिन उसके मुख से निकली न आह, न वाह,
क्यों की वह थी एक शापित शिला,
उसे इंतज़ार था केवल एक राम का
जो उसको कर दे फिर से जीवंत.
द्रवित हो उसकी व्यथा से
कलियुग में भी आया एक राम,
लेकिन उसका स्पर्श
धड़ तक ही दे पाया स्पंदन,
पैर पाषाण ही रहे
क्योंकि वह था कलियुग का राम,
सतयुग का नहीं
जिसके स्पर्श से
शिला संपूर्ण जीवंत अहिल्या बन गयी.
लेकिन यह अर्ध-जीवंत अहिल्या
दे सकती केवल वोट,
पर कुचल सकती नहीं अन्याय आगे बढ़ कर,
मंजिल नेताओं द्वारा दिखाया गया स्वप्न
जहाँ तक जा नहीं सकती कभी,
उसके पैर हैं अब भी शिला
जो उठ नहीं सकते.
वह चीखती है, चिल्लाती है
फिर चुप हो जाती है
और सूनी आँखों से देखती है राह
सतयुग के उस राम की
जो शायद फिर आजाये
और पूर्णतः जीवंत कर दे आज की अहिल्या को
जिससे वह अन्याय की मूक दर्शक न रहे
और कुचल सके उसे अपने पैरों तले.
…कैलाश शर्मा