विश्व भाषा का मिथक एवं लोकतंत्र
लोकतंत्र में शासन में जनता की सहभागिता तभी आ सकती है जब शासन व्यवस्था जन-भाषाओं में संचालित हो। इंग्लैड समेत सम्पूर्ण यूरोप में लोकतंत्र के विकास के साथ वहाँ की जनभाषाएं शासन प्रशासन और शिक्षा का हिस्सा बनी। युरोप में भी जब आम जन ने प्रोटेस्टेंट मूवमेंट के द्वारा न केवल चर्च अपितु सत्ता के अन्य स्तंभों पर भी अपनी दावेदारी ठोकी, तब ही लेटीन के स्थान पर आम जन की भाषा चर्च के साथ साथ शासन प्रशासन का भी हिस्सा बनी। जब जनसाधारण ने ज्ञान की सत्ता पर अपनी दावेदारी ठोकी, तब ही आम जन की भाषा शिक्षा का माध्यम भी बन पायी। स्वयं इंग्लेंड में कुलियों की भाषा समझें जाने वाली ‘अंग्रेजी’ जन आन्दोलनों की बदौलत ही मुख्य धारा में आयी। युरोप के मध्य काल के अंध युग का अंत स्वभाषा पोषित ज्ञान की बदौलत ही संभव हो सका। या यु कहे पुनर्जागरण काल जन भाषाओं में ज्ञान विज्ञान के प्रसार की बदौलत ही संभव हुआ। स्पष्ट है कि युरोप की तमाम जन क्रांतियाँ तब ही संभव हो पाई जब ज्ञान विज्ञान जन की भाषा में प्रतिस्फुटित हुआ।
भारत में कहने के लिए लोकतंत्र है। पर ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ की वजह से शासन प्रशासन के स्तर पर क्या घोल-मेल होता है यह जनता के समझ के बाहर है। जनता न तो मूलतः अंग्रेजी में लिखे कानून को समझ पाती है, न ही उसके आधार पर चलने वाली प्रशासनिक प्रक्रिया को और न ही उसके कलिष्ट हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में हुए अनुवाद को ही। उच्च शिक्षा का ज्ञान उच्च वर्ग तक ही सिमट कर रह गया है।भगत सिंह ने कहाँ था कि क्रांति की तलवार विचारों की शान पर चलती है।
मौलिक विचार अपने परिवेश की बोली भाषा में ही प्रतिष्फुटित होते है। बच्चा हो या बड़ा, हर एक अपने परिवेश की बोली में ही अपने आप को सहजता से अभिव्यक्त कर पाता है। मातृभाषा परिवेश पर निर्भर करती है न कि मजहब़, वंश, जाति आदि पर। अंग्रेजी जैसी गैर परिवेश की भाषा में तो बस हम रटी रटायी बात ही उगल सकते है। मौलिक चिंतन नहीं कर सकते है। ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ने के.जी. से पीएच.डी. तक की सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को तोता तैयार करने की फैक्ट्री में तब्दील कर दिया है। जिससे निकला तथाकथित शिक्षित वर्ग रटी रटाई बातो को ही उगलता है।
भारत को आर्थिक एवं तकनिकी सहायता प्रदान करने वाले इस्राइल, जापान, डेनमार्क, स्वीडन, बैलजियम जैसे छोटे-छोटे देशों का सम्पूर्ण शिक्षा तंत्र एवं राज व्यवस्था अपनी भाषाओं में ही संचालित होती है। बैलजियम की सम्पूर्ण व्यवस्था का संचालन तीन भाषाओं में होता है। बैलजियम में भाषायी भेदभाव को खतम करने हेतू सरकार का एक और स्तर बनाया है। वह है, सांस्कृतिक सरकार का। सांस्कृतिक सरकार यह सुनिश्चित करती है कि सभी भाषा-भाषियों को उनके उनके सांस्कृतिक पृष्टभूमि के अनुरूप विकास के अवसर मिले। बैलजियम की इस प्रतिबधता को देखते हुए ही यूरोपीय युनियन ने उसकी राजधानी बेरूसला को युरोपीय युनियन की राजधानी भी बनाया है। युरोपीय युनीयन का लक्ष्य यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका की तर्ज पर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ यूरोप को विकसित करना है। इसलिए युरोपीय युनियन ने युरोप की सभी 24 भाषाओं में जनसंवाद करती है।
फ्रांस के तो कहने ही क्या? फ्रांसीसी क्रांति के बाद जो समता, समानता, भाईचारावाद, साम्प्रदाय निरपेक्षता, मानव अधिकारवाद की नींव रखी वहाँ पर रखी गयी, वह भाषायी समता में भी देखने को मिलती है। फ्रांस मे आंचलिक क्षेत्र की बोली-भाषा को भी उतना ही महत्व प्राप्त है जितना की पेरिस में बोले जाने वाली फ्रेंच को। 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद भी भूतपूर्व 5 करोड़ की आबादी वालेसोवियत संघ ने संघ की 52 भाषाओं को शिक्षा और शासन-प्रशासन का माध्यम बनाया था।
जपान, जर्मनी. इस्रायल, स्वीडन में जब विज्ञान, मेडिकल, इंजिन्यरिंग सभी विषयों की शिक्षा एवं प्रशासनिक सेवा उनके देश में बोले जाने वाली बोली-भाषाओं में उपलब्ध कराते है, तो भारत के साथ दिक्कत क्या है? जब ये देश दूनिया में किसी भी भाषा में छपे दस्तावेज का अनुवाद स्व भाषा में कर अपने देशवासियों को उपलब्ध करा सकते है। तो दुनिया के किसी भी हिस्से का ज्ञान इंडिया दैट इज भारत में वाया लंदन एवं वाशिंगटन ही क्यों आता है?कही ऐसा तो नहीं, इस तथाकथित विश्वभाषा इंग्लिश ने हमें शेष विश्व से काट दिया है? शेष विश्व का वह ही ज्ञान भारत आ सकता है जिसे ये दो मख्य अंग्रेजी भाषी देश ज्ञान मानते हो। दूसरा मूल भाषा से अंग्रेजी मे अनुवाद के दौरान यदि कोई त्रुटी हो जाए तो वह उससे कलिष्ट रूप में आगे संचयी होगी। मतलब, वह ही ज्ञान भारत की सर जमी तक आएगा। ये दो देश ज्ञान मानेगो। वह भी अधकचरे तरिके से।
जब तक शासन प्रशासन और न्याय की भाषा सर्वहारा-गरीब-जन की भाषा नहीं होगी , तब तक यह व्यवस्था सर्वहारा-गरीब-जन का यु ही दमन करती रहेगी। जब सर्वहारा (गरीब वर्ग) की भाषा ही नहीं रहेगी तो सर्वहारा के विचार भी नहीं रहेगे। अब जब कांग्रेसी एवं भाजपायी आदि ही नहीं सभी कामरेड (सर्वहारा वर्ग के तथाकथित नेता) जन भाषा (सर्वहारा-गरीब जन द्वारा बोले ऐर समझे जाने वाली बोली-भाषा) के मुद्दे पर मौन ही नहीं, अपितु आम जन के समझ से परे की भाषा अंग्रेजी की पैरवी में ही लगे है। ऐसे में जन भाषाओं के प्रति हमारी प्रतिबधता भगत सिंह को फिर से जिन्दा करने की जिद्द है।