मनुष्य जीवन की सफलता के लिए वेदों की शरण लेना आवश्यक
ओ३म्
मनुष्य जीवन संसार की सभी जीव योनियों में सर्वश्रेष्ठ है जिसे निर्विवाद रुप से सभी स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार वैदिक सिद्धान्त, मान्यताओं व पद्धति के अनुसार व्यतीत मनुष्य जीवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन पद्धति है। संसार में अनेक जीवन शैलियों व पद्धतियों को मानने वाले लोग हैं। पारसी, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुस्लिम व पौराणिक पद्धति से जीवन जीने वाले लोग अपनी जीवन पद्धति को श्री श्रेष्ठ मानते हैं। हम यह स्वीकार करते हैं कि उनकी जीवन पद्धतियों में अनेक बातें अच्छी हैं परन्तु वैदिक जीवन पद्धति की जो विशेषतायें हैं, वह अन्य किसी जीवन पद्धति में न होने के कारण वैदिक जीवन पद्धति
ही सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होती है। अतः वैदिक जीवन पद्धति की श्रेष्ठता के कारण संसार के सभी लोगों को कभी न कभी तो वैदिक धर्म की शरण लेनी ही है। सत्य से कोई मनुष्य या जाति अधिक दिनों तक दूर नहीं रह सकती। यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही सभी के हित में है। वैदिक जीवन पद्धति की उत्तमता और विशेषताओं के कारण ही महर्षि दयानन्द के समस्त वैदिक विचारों, सिद्धान्तों व मान्यताओं के आधार पर यह कहा जाता है कि ‘हे संसार के लोगों ! अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए वैदिक धर्म की ओर लौटो’ और वेदों की शिक्षाओं को जीवन में आत्मसात कर जीवन के यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त करो।
वैदिक जीवन पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह संसार के आदि अपौरुषेय ग्रन्थ वेद पर आधारित है। वेद वह ज्ञान है जो सृष्टि की आदि में संसार में सर्वत्र व्यापक ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को वेदों के मन्त्रों के अर्थ सहित दिया था। ईश्वर संसार का रचयिता है और सभी प्राणी सृष्टियों को उसने ही उत्पन्न किया है। इन सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसके पास बुद्धि व बोलने के लिए भाषा वा वाणी दी गई है। जिस रूप में मनुष्यों को बुद्धि व वाणी प्राप्त है, उस रूप में यह अन्य प्राणियों को प्राप्त नहीं है। अन्य प्राणी तो अपने-अपने जीवन को संचालित करने के लिए ईश्वर प्रदत्त ज्ञान के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते हैं। इसका कारण यह है कि वह भोग योनियों में वर्तमान हैं। सभी मनुष्येतर प्राणी एक प्रकार की जेल या सुधार ग्रह में रह रहे हैं। इन योनियों में उन्हें कर्मों को ज्ञान पूर्वक करने की स्वतन्त्रता नहीं है। इन योनियों में वह वही कर्म करते हैं जो ईश्वर से निर्धारित होते हैं। बुरे कर्मों की सजा भोग लेने अर्थात् सुधार होने पर वह मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं जहां कर्म करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। जीव की परिभाषा ही यह है कि वह स्वतन्त्रता पूर्वक कर्मों का कर्त्ता है। कर्मों को करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। यह ज्ञान स्वाभाविक व नैमित्तिक दो प्रकार का होता है। स्वाभाविक ज्ञान को ही नैमित्तिक ज्ञान के द्वारा उन्नत कर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को जाना जाता है और उसे प्राप्त करने के लिए उसके अनुसार जीवन व्यतीत करते हुए साधक कर्मों को किया जाता है। वेदों के आधार पर जीवन में ब्रह्मचर्य अर्थात् विवेकपूर्वक पूर्ण संयम के साथ सभी विद्याओं का अर्जन तथा तदनुसार निजी जीवन व सामाजिक जीवन के कर्तव्यों का निर्वहन करना होता है। इसकी सहायता के लिए वेदों के आधार पर वेदों के मर्मज्ञ महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका सहित पंचमहाचज्ञ विधि और संस्कार विधि आदि ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों का अध्ययन कर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य का ज्ञान होने के साथ उनकी प्राप्ति के साधनों वा कर्तव्यों का भी पूर्ण ज्ञान हो जाता है जिसको करने से अभ्युदय व निःश्रेयस=मोक्ष=मुक्ति की प्राप्ति होती है। अभ्युदय व मोक्ष की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य व लक्ष्य हैं। यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के रूप में भी जाने जाते हैं। इनकी प्राप्ति के लिए ही सन्ध्या, अग्निहोत्र, मातृ-पितृ-आचार्य-विद्वान-गुणी संन्यासियों की सेवा सत्कार व देश समाज के ऋण=ऋषि ऋण को चुकाने के लिए परोपकार व परसेवा आदि कार्य किये जाते हैं।
आजकल संसार में जितनी भी जीवन पद्धतियां हैं उनमें प्रायः सभी में भोगों का विवेकरहित उपभोग और कुछ में अविवेकणूर्ण त्याग देखा जाता है जिससे अभ्युदय व निःश्रेयस का लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। वेदों पर आधारित वैदिक जीवन पद्धति ज्ञान व विवेक पर आधारित है। इसके अनुसार कर्मों के बन्धन के कारण जीवात्मा को मनुष्य व अन्य योनियां मिलती हैं। बन्धनों को ज्ञान व विवेक से ही खोला जा सकता है। वेदों का ज्ञान सृष्टिकर्म, तर्क, युक्ति व व्यवहार की दृष्टि से सत्य व यथार्थ सिद्ध होता है। वेदानुसार सदकर्मों को करके मनुष्य मृत्यु वा बन्धनों से छूटता है और विद्या अर्थात् विवेक से अमृत=मोक्ष की प्राप्ति होती है यथा ‘अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्यामृतमश्नुते। (यजुर्वेद 40.14)’ मनुष्य जीवन का उद्देश्य दुरितों अर्थात् बुराईयों को छोड़ना और भद्र अर्थात् कल्याणकारी कर्मों को करना है। सारा वैदिक ज्ञान भद्र कर्मों को करने की ही शिक्षा दे रहा है। वैदिक प्रार्थना ‘ओम् असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योर्तिगमय मृत्योर्मा अमृत गमयेति। (बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28)’ को जीवन में चरितार्थ कर ही जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आईये ! हम अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को जानने के लिए वेदों की ओर लौटें, वेदों की शरण लें और अभ्युदय व मोक्ष के साधनों को जानने के लिए वेदमूलक ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि का अध्ययन व स्वाध्याय करते हुए जीवन को उन्नत व लक्ष्य तक पहुंचायें।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .
नमस्ते, धन्यवाद एवं आभार आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।