ग़ज़ल
सोचते हैं बारहा क्यूँ हम सयाने हो गए
हो गए हैं हम नए रिश्ते पुराने हो गए
बात क्या है मिन्नतें रोती बहुत हैं आजकल
ख़्वाहिशों को मुस्कुराए तो ज़माने हो गए
बीनती कूड़ा जो बच्ची खेलने की उम्र में
सिर्फ़ इक सिक्के में उसके गुम ख़ज़ाने हो गए
जब जवाँ बेटे की अर्थी को उठाना पड़ गया
तो अचानक बाप के कमज़ोर शाने हो गए
गुनगुनाते शहर में मनहूसियत रहने लगी
गूँजती है चीख हरसू चुप तराने हो गए
तीरगी हड़ताल पे बैठी फ़लक को छोड़कर
रोशनी के तेरे “पूनम” कारख़ाने हो गए
——— पूनम पाण्डेय
बारहा = बार बार
हरसू = हर तरफ़
शाने = कंधे
तीरगी = अँधेरा