धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गाय के प्रति माता की भावना रखना और उसकी रक्षा करना मनुष्य का धर्म

ओ३म्

जब हम संसार की उत्पत्ति, मनुष्य जीवन और प्राणी जगत पर विचार करते हैं तो हम जहां संसार के रचयिता सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति नतमस्तक होते हैं वहीं मनुष्य जीवन के सुखपूर्वक संचालन के लिए गाय को मनुष्यों के एक वरदान एवं सर्वोपरि हितकारी व उपयोगी पाते हैं। यदि ईश्वर ने संसार में गाय को उत्पन्न न किया होता तो यह संसार आगे चल ही नहीं सकता था। संसार के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए थे, उनका भोजन या तो वृक्षों से प्राप्त होने वाले फल थे अथवा गोदुग्ध ही था। इन दोनों पदार्थों का भक्षण कर क्षुधा की निवृत्ति करने की प्रेरणा भी परमात्मा द्वारा ही आदि सृष्टि के मनुष्यों को की गई होगी, ऐसा हमारा अनुमान है। यदि गोदुग्ध, जो कि मनुष्य के लिए सम्पूर्ण आहार है, न होता तो फलाहार कर मनुष्य का आंशिक पोषण ही हो पाता। हम यह जानते हैं कि सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात मनुष्यों की जो अमैथुनी सृष्टि ईश्वर ने की थी, उसमें उसने मनुष्यों को युवावस्था में उत्पन्न किया था। हम यह भी अनुमान करते हैं कि ईश्वर ने इन मनुष्यों को स्वाभाविक ज्ञान के साथ क्षुधा की निवृत्ति हेतु भोजन व पिपासा के शमन हेतु जल का पान करने का ज्ञान भी इन सभी मनुष्यों को दिया था। शतपथ ब्राह्मण के लिखित प्रमाण के अनुसार परमात्मा ने ही आदि मनुष्यों में से चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। इस ज्ञान से सम्पन्न होने पर इन ऋषियों ने सभी मनुष्यों को एकत्रित कर उन्हें भाषा व बोली तथा कर्तव्य वा अकर्तव्यों का ज्ञान कराया। यह इन ऋषियों का कर्तव्य भी था और अन्य मनुष्यों की प्रमुख आवश्यकता भी। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य जीवन का आरम्भ हुआ।

गाय का हमारे वर्तमान जीवन में क्या महत्व और उपयेागिता है? इसका उत्तर है कि गाय एक पालतू पशु होने से हमारे परिवार का सदस्य बन जाता है। गाय को हम भोजन में घास आदि वनस्पतियों का चारा और जल का ही सेवन व पान कराते हैं जो हमें प्रकृति में सर्वत्र ईश्वर द्वारा निर्मित होकर सरलता से उपलब्ध होता है। हमें इसके लिए केवल परिश्रम करना होता है। इसके प्रत्युत्तर में गाय प्रातः व सायं दो बार हमें अमृततुल्य दुग्ध देती है। बीच में आवश्यकता पड़ने पर भी दुग्ध निकाला जा सकता है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है और माता के बाद गोदुग्ध का स्थान अन्य प्राणियों की तुलना में दूसरे स्थान पर होता है। दुग्ध से दही, मक्खन, क्रीम, घृत, छाछ, पनीर, मावा आदि अनेक पदार्थ बनते हैं जिनसे भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक स्वादों से युक्त आहार व भोजन के अनेक व्यंजन तैयार होते हैं जो सभी स्वास्थ्यवर्धक भी होते हैं। आयुर्वेद ने घृत को आयु का आधार बताया गया है जो कि वस्तुतः है। गोघृत स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ आयुवर्धक व रोग कृमिनाशक भी होता है। मनुष्य को ईश्वर का धन्यवाद करने व पर्यावरण को शुद्ध व पवित्र रखने के श्रेष्ठतम कर्मयज्ञ’ को करने के लिए मुख्य अवयव गोघृत की ही आवश्यकता होती है। यज्ञ से हमें इहलोक एवं परलोक दोनों में लाभ होता है तथा हमारा अगला जीवन भी बनता सुधरता है। यज्ञ करना वेदानुसार ईश्वराज्ञा है जो संसार के सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से पालनीय है। इसका पालन करने वाले ईश्वर से पुरस्कार के अधिकारी बनते हैं और पालन न करने वाले ईश्वर की आज्ञा भंग करने से दोषी व दण्डनीय। इस यज्ञ को करने के लिए भी गोपालन द्वारा गोदुग्ध की प्राप्ति आवश्यक है।

गाय से हमें बच्चों के रूप में बछिया और बछड़े मिलते हैं। बछियां कुछ समय बाद पुनः गाय बनकर हमारे लिए गोदुग्ध द्वारा उपयोगी बन जाती हैं और बछड़े कुछ ही महीनों में बड़े होकर हमारी खेती के काम आते हैं। प्राचीन काल में यदि बछड़े न होते तो खेती न हो पाती और हमारे पूर्वजों को पर्याप्त अन्न न मिलने से उनका जीवन निर्वाह कठिन होता जिससे उनके बाद की पीढि़यों अर्थात् हमारा अस्तित्व होता, या न होता कह नहीं सकते। अतः हमारे आज के अस्तित्व में गोमाता व उसके बछड़ों का सृष्टि के आदि काल से ही महत्व रहा है। गाय हमारी जीवन रेखा व प्राणदायिनी रही है। गाय के बछड़ों के द्वारा खेती करने से जो लाभ हैं, वह ट्रैक्टर आदि से नहीं होते। ट्रैक्टर पर भारी भरकम धन व्यय करने के साथ उसके रखरखाव व डीजल आदि पर नियमित व्यय करना होता है और साथ ही हम अपने वायुमण्डल को प्रदूषित कर श्वांस में प्रदूषित वायु लेते हैं जिससे अनेक रोगों से ग्रस्त होकर क्षीणकाय बनते और अल्पायु में मृत्यु का ग्रास बनते हैं। बैलों द्वारा खेती करने से हमारा बहुत धन बचने के साथ पर्यावरण सुरक्षा का लाभ मिलता है। हम बैलों की हत्या के महापाप से भी बचते हैं, वायुमण्डल शुद्ध रहता है और साथ हि बैल जो पुरीश-मल व मूत्र खेतों में विसर्जित करते हैं वह बहुमूल्य खाद का काम करता है। इससे भूमि की उर्वरा सकती बढ़ती है वा सुरक्षित रहती है। यह भी तथ्य है कि ट्रैक्टर के लिए खेतों तक जाने के लिए चैड़ी सड़क की आवश्यकता होती है जबकि बैलों के लिए किसी प्रकार की सड़कों की आवश्यकता नहीं होती। इससे सड़क की भूमि का उपयेाग भी कृषि में सम्मिलित होकर अन्न के उत्पादन में वृद्धि होती है। बैल एक चेतन प्राणी है, उससे खेती करने से एक प्राणी को जीवन देने व उसकी रक्षा व सेवा करने से किसान को जो पुण्य होता है वह ट्रैक्टर आदि किसी भी जड़ पदार्थ से सेवा करने से नहीं होता।

गाय का गोबर व गोमूत्र न केवल बहुमूल्य खाद व कीटनाशक का काम करता है अपितु भूमि की उर्वरा शक्ति को सुरक्षित रखते हुए उसमें वृद्धि भी करता है। गाय का गोबर व गोमूत्र पंचगव्य नामक ओषधि बनाने के काम आता है, जो गोरक्षा व गोहत्या को समाप्त किये बिना सम्भव नहीं है। गाय के घृत से एक ऐसी भी ओषधि तैयार होती है जिससे बांझ स्त्रियों को सन्तान लाभ होता है। गोघृ्त से महात्रिफलाघृत भी बनाया जाता है जो नेत्रों की अनेक रोगों से चिकित्सा में काम आता है। इन ओषधियों का विकल्प न तो एलोपैथी में है और न अन्य किसी पैथी में। गोदुग्ध के अनेक ओषधीय गुणों में आंखों व शरीर के सभी अंगों को लाभ सहित क्षय रोग व कैंसर जैसे जान लेवा रोग में भी अनेक प्रकार से लाभ होता है। गोमूत्र तो कैंसर के उपचार में प्रयोग में लाया जाता है जिससे अनेक रोगियों को प्रत्यक्ष लाभ देखा गया है। आज ऐलोपैथी की महंगी दवायें व अनेक प्रकार की कष्टकारी चिकित्सा होने पर भी रोगी स्वस्थ नहीं हो पाते वहीं गोमूत्र का सेवन बिना मूल्य की रोगियों में जीवन की आशा जगाने वाली सच्ची व यथार्थ ओषधि है और निर्धनों के लिए ईश्वर का वरदान है। गाय का गोबर जहां खाद का काम करता है वहीं यह गांवों में चूल्हे व चैके में भी प्रयोग में लाया जाता है। गाय के गोबर के उपले ईधन का काम करते हैं वहीं कच्चे घरों, झोपडि़यों व कुटियाओं में गोबर का भूमि व फर्श पर लेपन करने से वह स्वच्छ व किटाणु रहित हो जाता है। एक वैज्ञानिक रिसर्च में यह तथ्य सामने आया है कि गाय के गोबर से लीपी गई दीवारों के अन्दर रेडियोधर्मिता प्रवेश नहीं करती जिससे उसमें अध्यासित लोगों की आणविक विकिरण से रक्षा होती है। गोघृत को जलाने से वायुमण्डल पर इसका चमत्कारी प्रभाव पड़ता है। भोपाल काण्ड में गोघृत से यज्ञ करने वाले एक गृहस्थी, उसके परिवार व पालतू पशुओं की इस गोघृत के यज्ञ ने ही रक्षा की थी जबकि सहस्रों की संख्या में अन्य लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठे थे। इसके साथ गाय का घी सर्पविष की चिकित्सा में भी एक महत्वपूर्ण ओषधि है। यदि सर्पदंश से ग्रसित मनुष्य को गोघृत का सेवन व पान कराया जाये तो विष का शरीर पर प्रभाव समाप्त हो जाता है। भारत का प्राचीन मोहनभोग स्वादिष्ट आहार गोदुग्ध से ही बनाया जाता था। गोदुग्ध से मिट्टी की हाण्डी में बनी खीर का अपना ही स्वाद व स्वास्थ्यवर्धक गुण होता है जो कि शहरों के लोगों की पहुंच से बहुत दूर हो गया है। गाय के इन सभी गुणों, महत्व, लाभों व उपयोगिताओं के कारण ही हमारे आस्तिक विचारों वाले पूर्वज गो को अवध्य, गोहत्या को महापाप, अमानवीय, गो मांसाहार को त्याज्य व निन्दनीय मानते आये हैं जो कि पूर्णतया उचित ही है। वेद गोहत्यारे को सीसे की गोलियों से बींधने का आदेश देता है।

गाय का देश की अर्थव्यवस्था में भी प्रमुख योगदान है। गोदुग्ध एक मधुर स्वास्थ्यवर्धक पेय होने के साथ गोदुग्ध से बने अन्य सभी पदार्थ अन्न का एक सीमा तक विकल्प भी है। गाय के बछडों से की जाने वाली खेती से जो अन्न उत्पादन होता है वह भी यदि आर्थिक दृष्टि से गणना की जाये तो देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा अंश होता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि’ में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं।’ वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मारकर असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’ गो के दुग्ध, इससे निर्मित अन्य पदार्थों व गोबर सहित गोमूत्र के ओषधीय लाभों को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे गोरक्षा के आर्थिक लाभ का अनुमान लगाया जा सकता है जो कि किसी अर्थशास्त्री की आशाओं से कहीं अधिक होता है। गोहत्या को बन्द करने के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने समय में अपने प्रकार का एक अपूर्व आन्दोलन चलाया था। उन्होंने गोहत्या रोकने के मुद्दे पर 2 करोड़ भारतीयों के हस्ताक्षर कराकर इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरियां को प्रेषित करने की यायेजना बनाई थी जिस पर तीव्रता से कार्य चल रहा था और नित नई सफलातायें मिल रहीं थी। महारानी विक्टोरिया को भेजी जाने वाली गोहत्या को रोकने की मांग के इस ज्ञापन में गोरक्षा से लाभ व गोहत्या से हानि तथा मानवीय पहलुओं का उल्लेख कर कहा गया था कि इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमतिराजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्यायप्रणाली में जो यह अन्याय रुप बड़े बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या होती है, उसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते हैं। यह हम को पूरा विश्वास है कि विद्या, धर्म, प्रजाहित प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया पार्लियामेन्ट सभा तथा सर्वोपरि प्रधान आर्यावर्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल तथा भैंस की हत्या को उत्साह तथा प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सब को परम आनन्दित करें।

संसार के सभी प्राणियों में केवल गोमाता का गोबर ही रोगाणुनाशक होता है। इस बारे में कहा जाता है कि चैरासी लाख योनियों के प्राणियों में गाय ही एक ऐसा प्राणी है जिसका पुरीष (गोबर) मल नहीं है, उत्कृष्ट कोटि का मलशोधक है, रोगाणु एवं विषाणुनाशक है तथा जीवाणुओं का पोषक है। इतना होने पर भी हम अनुभव करते हैं कि हमारे अंग्रेजी व अन्य शिक्षा पद्धतियों से पढ़े हुए वैदिक संस्कारविहीन लोगों को यह बातें समझ में नहीं आयेंगी क्योंकि उनका जैसी देश वैसा भेस, जैसी शिक्षा वैसी सोच’ के अनुसार विचारान्तरण हो चुका है। उनका यह कार्य स्वयं उनके लिए ही आत्मघाती है। इसका फल अवश्य उन्हें भोगना ही होगा। ईश्वर का कर्मफल सिद्धांत सारे संसार पर लागू है। सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करना धर्म है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “गाय के प्रति माता की भावना रखना और उसकी रक्षा करना मनुष्य का धर्म

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा .मेरा तो सारा बचपन ही गाये बैंसें ,बछे बछड़ों के साथ बीता है किओंकि मैं उन को घास चराने ले जाया करता था . उस समय मीलों तक घास के मैदान होते थे .एक गाये से तो मुझे इतना प्रेम था कि उस के मरने पर मैं बहुत रोया था .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। आपने लेख पढ़ा, इससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता एवं संतोष है। अधिकांश पशु हमारे पूरक एवं पोषक है। जिस प्रकार हम वायु व जल का सेवन करते हैं इसी प्रकार से हमें अपने जीवन में इन पशुओं से लाभ उठाना चाहिए और इनकी सेवा करनी चाहिए। जब ये हमें कोई कष्ट नहीं देते तो हमें भी इन्हे कोई कष्ट नहीं देना चाहिए। यही मानवता है। यदि अगले जन्म एवं बाद के किसी जन्म में हमें इन पशुओं की योनियों में जन्म मिले तो इस परम्परा के कारण हमारा जीवन का सुखपूर्वक निर्वाह हो सके। आपके सभी शब्दों के लिए हार्दिक धन्यवाद। मैंने भी अपने स्कूली जीवन में बकरियां चराईं हैं। मुझे बकरी का दूध बहुत अच्छा लगता था। बकरी के बच्चे तो बहुत सुन्दर होते होते हैं। ऐसा लगता था कि यह ईश्वर के बनाये हुवे खिलोने हैं हमारे खेलने के लिए। सादर।

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