इन्तजार
इन्तजार इन्तजार
ना जाने क्यूँ
मुझे एक अरसे से है
ढूँढा भी मैंनें तुम्हें बार बार
पर ना मिली तुम
मेरी चेतना
कहाँ जा छिप गयी
रूठ कर मुझसे
अपने तन मन में
ढूँढा तुम्हें अविरल
पर ना मिली तुम
मेरी चेतना
बार -बार तुम ही
चंचल चलायमान बना रही हो
मैं फँसती जा रही हूँ
आसक्ति , मोह के जाल में
मिल जाओं यदि तुम
पहला शिकार तुम होगी
मेरी चेतना
बहुत भटकाती हो मुझे
सब्जबाग दिखाती हो मुझे
रोज एक नए मोड़ पे ला
खड़ा कर देती हो मुझे
जहाँ बन्धन झूठे नजर
खोखले ढोगी लगते है
तब मुझे केवल
केवल इन्तजार होता है
रूह का केवल
खुदा की उस रूह का
खत्म हो जाता अन्तर
तू और मैं का
बस इन्तजार , इन्तजार
हैं मुझे रूह का
वाह् क्या बात है सुन्दर भाव पूर्ण कविता।
वाह् क्या बात है सुन्दर भाव पूर्ण कविता।