कविता : गायब लोकतन्त्र
लोकतन्त्र का पर्व आ गया
नेता अब निर्वाचित होंगे,
मक्कारों की पौ बारह है
अवसरवादी सम्मानित होंगे।।
जाति, प्रान्त, भाषा और मजहब
अब भी चुनाव में भारी हैं,
प्रगति, एकता और सुरक्षा
ये हर चुनाव में हारी हैं।।
वंशवाद की होड़ मची है
जन-हित सबने त्यागा है,
वोटबैंक बनकर ही खुश है
मतदाता बड़ा अभागा है।।
जाति देखकर बटन दबेगी
‘सेवक’ जाति के आएंगे,
वोट कौम का कहाँ पड़ेगा
अब धर्मगुरू बताएंगे।।
जाति, धर्म पर बहस छिड़ेगी
संविधान पुनः संशोधित होगा,
बँटवारे की नींव पड़ेगी, जब
कौमी आरक्षण प्रस्तावित होगा।।
नेताओं को देख लग रहा
लोकतन्त्र में जाति बड़ी है,
विकास, देश का कौन करेगा
मजहब की दीवार बड़ी है।।
नोट बँटेगे, वोट बिकेंगे
‘माननीय’ निर्वाचित होंगे,
मक्कारों की पौ बारह है
अवसरवादी सम्मानित होंगे।।
राजनीति के कुटिल खेल में
यहाँ सभी कुछ जायज है,
प्रजातन्त्र के इस उत्सव में
खुद ‘लोकतन्त्र’ ही ‘गायब’ है।।
— श्याम नन्दन