कविता
कुछ धधक रहा हैं
मेरे अंदर
तलाश में हूँ मैं
उस अाग की
राख कर सके जो
मुझे जला कर
होती हैं
कुछ लोगों की इच्छा कि
बाद मरने के
उनकी अस्थियाँ
बहा दी जाए गंगा में
ताकि जाने के बाद भी
उनका कुछ
कण कण में रहे.
सुनो
सुन सुन रहे हो न
ऐसे ही खुद को
रख रही हूँ मैं
जीते जी …
सारी रचनाओं में
अपनी जिन्दगी का कुछ…
कण कण भर.
…रितु शर्मा …