ग़ज़ल
उनकी नजरों से देखा जब खुद को खुद पर मान हुआ.
उनकी नज़रें मेरा दर्पण पूरा ये अरमान हुआ
इक-दूजे से मिलने को तो पागल थे हम दोनों ही,
पर मैं उनसे मिलकर बोली-जाओ ये अहसान हुआ.
हसरत, चाहत, ख्वाहिश, जज्बा, अंगड़ाई एहसासों की,
इश्क़ हुआ है मज़हब मेरा दीन-धरम-ईमान हुआ.
जीवन कितनी खामोशी से गुजरा अब तक नदिया का,
सागर के नज़दीक पहुँचते ही कैसा तूफ़ान हुआ.
लगी नहीं है जिसके दिल को उसका जीना क्या जीना,
और लगी है जिसको, रब्बा ! वो सचमुच इंसान हुआ.
— अर्चना पांडा