कविता : मेरे मार्गदर्शक – पिता और शब्दकोश
जिल्द में लिपटा,
पिता का दिया शब्दकोश ,
अब हो गया है पुराना,
ढल रही उसकी भी उम्र,
वैसे ही ,
जैसे कि पिता के चेहरे पर भी,
नज़र आने लगी हैं झुर्रियां,
मगर डटे हैं मुस्तैदी से,
दोनों ही अपनी -2 जगह पर l
अटक जाता हूँ कभी,
तो काम आता है आज भी,
वही शब्दकोश,
पलटता हूँ उसके पन्ने,
पाते ही स्पर्श,
उँगलियों के पोरों से ,
महसूस करता हूँ,
कि साथ हैं पिता,
थामे हुए मेरी ऊँगली,
जीवन के मायनों को,
समझाते हुए,
राह दिखाते,
एक प्रकाशपुंज की तरह l
जमाने की कुटिल चालों से ,
कदम -2 पर छले गए,
स्वाभिमानी पिता,
होते गए सख्त बाहर से,
वह छुपाते गए हमेशा ही ,
भीतर की भावुकता को l
ताकि मैं न बन जाऊ,
दब्बू और कमजोर,
और दृढ़ता के साथ ,
कर सकूँ सामना,
जीवन की ,
हर चुनौती का l
उनमें आज भी दफ़न है,
वही गुस्सा,
खुद के छले जाने का ,
जो कि फूट पड़ता है अक्सर,
जिसे नहीं समझना चाहता,
कोई भी l
सीमेंट और बजरी के स्पर्श से,
बार – 2 जख्मी होते,
हाथों व पैरों की उँगलियों के,
घावों से ,
रिसते लहू को,
कपड़े के टुकड़ो से बांधते,
ढाम्पते और छुपाते,
उफ़ तक न करते हुए,
कितनी ही बार,
पीते गए हलाहल,
अनंत पीड़ा का l
संतानों का भविष्य,
संवारने की धुन में ,
संघर्षरत रहकर ता उम्र,
खड़ा कर दिया है आज,
बच्चों को अपने पांवो पर l
अब चिंताग्रस्त नहीं हैं वे,
आश्वस्त हैं,
हम सबके लिए,
मगर फिर भी ,
हर बार मना करने पर,
चले जाते हैं काम पर आज भी,
घर पर खाली रहना ,
कचोटता है,
उनके स्वाभिमान को l
पिता आज बेशक रहते हैं,
दूर गाँव में,
मगर उनका दिया शब्दकोश,
आज भी देता है सीख,
और एक अहसास ,
हर पल,
उनके पास होने का l
– मनोज चौहान