मुक्त दयानन्द मोक्ष में आर्यसमाज की दुर्दशा से दुःखी व संतप्त
ओ३म्
महर्षि दयानन्द का अजमेर में दीपावली, सन् 1883 को देहावसान हुआ था। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद हमें पूरी सम्भावना लगती है कि उन्हें ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त हुआ होगा। यदि किसी विद्वान को इसमें संशय हो कि महर्षि दयानन्द जी को मोक्ष नहीं मिला होगा, तो हमें लगता है कि फिर किसी भी जीवात्मा को मोक्ष नहीं मिल सकता। इसका कारण है कि महर्षि दयानन्द जी में जो वेदज्ञान की पराकाष्ठा व गुण-कर्म-स्वभाव की श्रेष्ठता व आचरण था उससे अधिक होने की हम कल्पना ही नहीं कर सकते। उनके जीवन में कोई नकारात्मक बात दृष्टिगोचर होती ही नहीं है। अतः उनको मोक्ष मिलना निश्चित होता है। मोक्ष पर विचार किया जाये तो मोक्ष में ईश्वर मुक्त जीवात्मा को अनेक प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न करता है जिससे जीव समूचे ब्रह्माण्ड में स्वेच्छापूर्वक विचरता है। यदि वह चाहे तो, अजर व अमर होने से, सूर्य पर भी जा सकता है और ब्रह्माण्ड के अन्य सभी लोक लोकान्तरों में भी। विचार करने पर हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द मोक्ष में खाली तो बैठे नहीं होंगे, यत्र तत्र अवश्य जाते होंगे। उनकी अवश्य इच्छा होती होगी कि आर्यसमाज के बारे में यथार्थ जानकारी प्राप्त की जाये। आर्यसमाज की उन्नति की उन्हें निश्चय ही अब भी चिन्ता होती होगी। उन्होंने आर्यसमाज को अपने रक्त से सिंचित किया था। मोक्ष में उन्हें वह सब कुछ स्मरण होगा जो उन्होंने पृथिवी लोक में किया था। अपने पूर्व जन्मों का भी उन्हें अवश्य ही ज्ञान होगा। अपने जीवन (1825-1883) के बारे में जब वह विचार करते होंगे तो वह पृथिवी पर आकर टंकारा, अजमेर सहित जोधपुर, उदयपुर व अन्य स्थानों पर जहां-जहां वह अपने जीवन काल में घूमे थे, जाते होंगे। हो सकता है कि स्वामी दयानन्द जी के विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी को भी मोक्ष प्राप्त हुआ होगा और दोनों की परस्पर भेंट हुआ करती होगी। दोनों गुरु शिष्यों ने मिलकर वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार व आर्यसमाज की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की होगी और वर्तमान अवस्था से वह अवश्य खिन्न व दुःखी हुए होंगे। आज के हिन्दुओं व आर्यसमाजियों का वैदिक धर्म के प्रति जो उपेक्षा भाव है और आर्यसमाज के संगठन की जो दुर्दशा है, उसको देखकर वह दोनों अवश्य खून के आंसू पीते होंगे। हमें यह भी अनुमान होता है कि वह मोक्ष में ईश्वर से प्राप्त सभी प्रकार की शक्तियों का उपयोग करते हुए आर्यसमाज के वर्तमान बडे़-छोटे, ऊंचे व नीचे अधिकारियों और सदस्यों के पास भी आते-जाते होंगे और उनके कार्यों व गुण-कर्म-स्वभाव को देखकर हर्ष व शोक करते होगे। हमारे जो अधिकारी आज पदों पर बैठे हैं और उसके साथ न्याय नहीं कर रहे हैं, मुकदमों, गुटों व अन्य प्रकार की तिगड़मों से अपने पद व अधिकारों को लेकर परस्पर संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें देखकर अवश्य ही दुःखी होते होंगे। यदि गुरु विरजानन्द जी और स्वामी दयानन्द जी के वश में होता तो वह अवश्य ही ईश्वर को भारत की धरती पर जन्म देने के लिए कहते जिससे कि वह पृथिवी पर आकर वैदिक धर्म के प्रचार के निमित्त आर्यसमाज का सुधार कर वेद प्रचार के अधूरे कार्य को पूरा सकें। ईश्वर ने उन्हें बता दिया होगा कि मोक्ष अवधि पूरी होने से पूर्व उन्हें जन्म देना सम्भव नहीं है। इससे व्यवस्था भंग होगी, अतः ऐसा किया जाना उचित व सम्भव नहीं है। हमने विचार किया है और हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द जी व गुरु विरजानन्द जी के अतिरिक्त स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महाशय राजपाल, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, स्वामी वेदानन्द सरस्वती, आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी आदि अनेक महान पुरुषों की आत्मायें मोक्ष में हो सकती हैं और वह अवश्य ही भारत में आकर वैदिक धर्म और आर्यसमाज की स्थिति व आर्यसमाज के अनुयायियों के आचरण को देख कर दुःखी होती होंगी।
हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि हमने विचार करने पर उपरोक्त तथ्यों को सही पाया और पाठकों के विचारार्थ लिख दिया। आर्यसमाज के महर्षि दयानन्द के अनुयायी कहलाने व मानने वाले बन्धुओं को इस पर संजीदगी से विचार करना चाहिये और अपने आचरण में अपेक्षित सुधार करना चाहिये। हम समझते हैं कि जब हम अपने सभी स्वार्थों को पृथक रखकर विचार करेंगे तो हमें निश्चय ही अपने कर्तव्य का बोध होगा। पद व सम्मान की लोकैषणा, वित्तैषणा व पुत्रैषणा आदि अनित्य हैं जो कि कुछ काल बाद ही समाप्त हो जायेंगी परन्तु धर्म व वैदिक मत का पालन व आचरण हमें भावी जन्मों में भी सहायक होता है जो कि तर्कसिद्ध सिद्धान्त हैं। अतः हमें सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करते हुए अपनी जीवात्मा के दूरगामी हित को ही महत्व देना है। हम विवार कर अपने कर्तव्यों का निश्चय करें। गुरु विरजानन्द जी और महर्षि दयानन्द जी की मोक्ष में विचरण कर रही आत्मा जो चाहने पर हमारे पास आकर हमारे आचरण व विचारों को जान सकती है, इसका ध्यान कर हम अपने कर्तव्य का निर्धारण करें और उसी पर चलकर अपने जीवन को देश व समाज के लिए समर्पित कर दें।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख को पड़ कर बहुत कुछ समझ में आया . मैं और मेरा दोस्त बहादर सिंह हमेशा यह ही बातें करते रहते थे कि सिख धर्म के सभी गुरुओं ने बहुत ही इमानदारी से लोगों को सही रास्ता दिखाया था लेकिन ज़िआदा लोग नमस्कार करने वाले या माथा टेकने वाले ही होते हैं और इसी लिए वोह अपनी निजी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं करते और हेरा फेरीआं ,झूठ तूफ़ान और चालाकी उसी तरह चलता रहता है . सुआमी दयानंद जी ने अपनी सारी जिंदगी लोगों पर निशावर कर दी लेकिन जो आप ने लिखा है वोह मैं सब समझता हूँ किओंकि इंसान बदलता नहीं है ,हाँ कुछ लोग होते हैं जो गुरुओं के बताये रास्ते पर चलते हैं ,लेकिन कितने ? अपनी सारी जिंदगी में मैंने इतना कुछ देखा समझा है कि मुझे यह सब समझ आ गिया है कि यह सभी धर्म एक ढोंग बन कर रह गए हैं ,एक नाटक जैसे हो गए हैं . मेरी पत्नी गुरदुआरे हर सोमवार को जाती है ,यह उस की श्रधा है लेकिन वोह मेरे विचारों से भी पूरी तरह सहमत है . औरतें माथा तो टेकती हैं ,वाहेगुरु वाहेगुरु भी बहुत करती हैं , झडावा भी चडाती हैं लेकिन जब लंगर खाने में यही औरतें इकठी हो कर लंगर तैयार करती हैं तो आपस में किसी की निंदिया चुगली भी करने लग जाती हैं ,कई तो वहां लड़ने भी लग जाती हैं यानी माथा टेकने के बाद वोह अपनी असली हकीकत में आ जाती हैं .गुरदुआरे में भी वोह धार्मिक नहीं बन पातीं .माथा टेकना और पाठ करना ही इन का धर्म है ,सहनशीलता सच्चाई और धर्म के रास्ते पर चलने से इन का कोई लेना देना नहीं है .हम इस को धर्म नहीं पाखंड कहते हैं . इसी तरह जो आप ने आरीया समाज के बारे में लिखा है ,मुझे इस में कोई हैरानी नहीं है .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचारों को कई बार पढ़ा। आजकल लोगों में स्वार्थ का बोलबाला है। प्रवचन सुनकर और पुस्तकें पढ़कर लोग चर्चा अवश्य करते हैं परन्तु उनपर आचरण नहीं करते क्यांेकि ऐसा करने से उन्हें आर्थिक हानि होने का डर सताता है। धर्म को वह उसी सीमा तक हि आचरण में लाते हैं जहां तक उनके आर्थिक हित सुरक्षित रहंे और वह अधिकतम सुख-सुविधायें प्राप्त कर उन्हें भोग सके। मुझे इसका कारण आधुनिकता का प्रभाव के साथ लोकैषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा दिखाई देता है। मनुष्य को इससे उपर उठना होगा और इसके लिए माता के गर्भ से ही बच्चों को संस्कार देने होंगे। यह सम्भव होगा, यह कहना कठिन है। ऐसा लगता है कि ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।’ वाली बात सिद्ध हो रही है। आपका कहना सत्य है कि आजकल धर्म में पाखण्ड घुस गया है जिसे दूर करना अत्यन्त कठिन है। प्रतिक्रिया सूचित करने के लिए हृदय से आपका आभार और धन्यवाद।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचारों को कई बार पढ़ा। आजकल लोगों में स्वार्थ का बोलबाला है। प्रवचन सुनकर और पुस्तकें पढ़कर लोग चर्चा अवश्य करते हैं परन्तु उनपर आचरण नहीं करते क्यांेकि ऐसा करने से उन्हें आर्थिक हानि होने का डर सताता है। धर्म को वह उसी सीमा तक हि आचरण में लाते हैं जहां तक उनके आर्थिक हित सुरक्षित रहंे और वह अधिकतम सुख-सुविधायें प्राप्त कर उन्हें भोग सके। मुझे इसका कारण आधुनिकता का प्रभाव के साथ लोकैषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा दिखाई देता है। मनुष्य को इससे उपर उठना होगा और इसके लिए माता के गर्भ से ही बच्चों को संस्कार देने होंगे। यह सम्भव होगा, यह कहना कठिन है। ऐसा लगता है कि ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।’ वाली बात सिद्ध हो रही है। आपका कहना सत्य है कि आजकल धर्म में पाखण्ड घुस गया है जिसे दूर करना अत्यन्त कठिन है। प्रतिक्रिया सूचित करने के लिए हृदय से आपका आभार और धन्यवाद।