साहिल
खुद से मिलने अक्सर
साहिल पर आ जाती
चैन ओ’ सुकून पा यहाँ
खुद को मानो पा जाती
उठती-गिरती लहरें इसकी
अंतर्मन को भिगो जाती
इसकी शीतल-नम सी रेत
तन की थकन हर जाती
समुद्र-संग सटे पत्थर पर
बैठ, खुद से मैं बतियाती
अथाह समुद्र का विस्तार
देख, अचम्भित सी रह जाती
तट का इक छोर तो दिखता
दुजा छोर कहीं ना पाती
समुद्र के इस अनंत विस्तार
में, जीवन का रहस्य भी पाती
समुद्र सदृश ही जीवन के
अदृश्य छोर खोज नही मैं पाती
—- शशि शर्मा ‘खुशी’