लघुकथा : माँ पर पूत, पिता पर घोडा
“का हो बबुआ, घरे आई लछिमी कोनों ढुकरात है?” माँ के स्वर में थोड़ा दर्द और ज्यादा व्यंग था, राज यकायक अपने अतीत में जा डूबा। …. ठीक ऐसे ही उसने बाबा के लिए माँ से कहा था जब बाबा ने रिश्वत का ब्रीफकेस दरवाजे से बहार सड़क पर फेंक राज को डांटना शुरू किया था,”कितनी बार कहा है की मेरे से बिना पूछे किसी को घर में मत घुसने दो,पर लाट साहब समझे तब ना ?चले आते हैं बेग में रुपये लेकर मानवता खरीदने !मैं बिकाऊ नहीं हूँ समझे?”
इस बीच राज ने ना जाने कितने सपने बुन डाले थे उन पैसों को लेकर जिन्हे बाबा ने कागज़ के टुकड़ों की मानिंद हवा की सैर करा दी थी,उहं !! बस एक बार ले लेते तो क्या बिगड़ जाता? बाबा के क्लर्क के घर में काठगोदाम की मजबूत लकड़ी का डिज़ाइनर फर्नीचर,बड़ा गोदरेज का फ्रिज,टोयटा कार और न जाने क्या-क्या और हमारे घर में मामूली चार कुर्सियां और छोटा तख़्त ,बड़ी शर्म आती थी जब क्लर्क का बेटा घर आकर हेय दृष्टि से देखता था !
आज विवेक बाबू नोटों से भरा सूटकेस थमा रहे थे और बाहर रामू काका अपनी हार होते देख,झुकी कमर और पनीली आँखों से हसरत से उसका मुँह निहार रहे थे ! पत्नी को अच्छे प्राइवेट हॉस्पिटल में डिलिवरी करने का स्वप्न,माँ को चारों धाम घुमाने की लालसा और अपने लिए देखा देहरादून का बड़ा फ्लेट (जिसे विवेक बाबू देने वाले थे ) बाहर खड़ी काली चमचमाती बी एम डब्लू कार का सम्मोहन एक तरफ और दूसरी तरफ बाबा का गौरवान्वित मुखड़ा और माँ का दंश देता वाक्य,रामू काका की पेंतालिस डिग्री झुकी कमान सी पींठ जो उस बेग को देख तनिक और झुक गयी लगी। …. चुनाव में पल भर का विलम्ब उसकी नीयत और सम्मान को चटाक से चटका दे,इसके पहले तीर सा निकल राज ने विवेक बाबू की कार को रोक बेग वापिस कर उन्हें झुका डाला था !
माँ ने सुख की सांस लेकर पुनः कह डाला ,”माँ पर पूत,पिता पर घोडा,बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा “
— पूर्णिमा शर्मा
आदरणीय पूर्णिमा शर्मा जी आप ने बहुत ही सुन्दर लघुकथा लिखी है. बधाई इस शानदार लघुकथा के लिए.