गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

किसी की याद में अक्सर तड़पना ठीक लगता है
कोई जब दूर जाये तो तरसना ठीक लगता है

परिन्दों को कफ़स की तीलियों से दूर ही रखना
खुले आकाश में इनका चहकना ठीक लगता है

तुम्हें ये चाँद सूरज और तारे सब मुबारक हों
मुझे ख़ुद नूर से मेरे दमकना ठीक लगता है

ये शामे-गम ये तन्हाई मेरे अन्दर का सूनापन
कभी जब जाम ख़ाली हो मचलना ठीक लगता है

कभी खुद को यूँ तुमसा बना ही लेंगे हम
हमें तेरी ही फितरत में ढलना ठीक लगता है

वो सूरज गर  महरबां है उसे महरबां रहने दो
मुझे किरणों की झालर बन चमकना ठीक लगता है

ये मिट्टी सा बदन मधुर तेरी बारिश में बिखरा है
मुझे मेरा तुझ ही में यूँ पिघलना ठीक लगता है

मधुर परिहार 

One thought on “ग़ज़ल

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बहुत बढिया

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