ग़ज़ल
उच्श्रृंखल है प्यार तुम्हारा अच्छा लगता है,
मुझ पर हर अधिकार तुम्हारा अच्छा लगता है.
कैद किया है तुमने तो मुझको अपने दिल में,
पर ये कारागार तुम्हारा अच्छा लगता है.
“ना” भी कहते तो मुझको “हाँ” जैसा ही लगता,
इक़रार-ओ-इंकार तुम्हारा अच्छा लगता है,
चुन्नी फिसले मेरी नज़र झुका लेते हो तुम,
हरदम यह व्यवहार तुम्हारा अच्छा लगता है.
तुम जो कहते हो मुझसे वो वेदों सा लगता,
शब्दों का उपहार तुम्हारा अच्छा लगता है.
सबके तुम हो और तुम्हारे सब हैं, मैं भी हूँ,
मुझको कुल संसार तुम्हारा अच्छा लगता है.
— अर्चना पांडा
कुछ भी हो ,मुझे तो इस ग़ज़ल को गाने का मन हो रहा है .
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने..
कृपया दुसरे शे’र के पहले मिसरे की बह्र जांच लें!!
सादर।।