ग़ज़ल
कभी है ग़म,कभी थोड़ी ख़ुशी है
इसी का नाम ही तो ज़िन्दगी है
हमें सौगात चाहत की मिली है
ये पलकों पे जो थोड़ी-सी नमी है
मुखौटे हर तरफ़ दिखते हैं मुझको
कहीं दिखता नहीं क्यों आदमी है?
फ़िज़ा में गूँजता हर ओर मातम
कि फिर ससुराल में बेटी जली है
सभी मौजूद हों महफ़िल में,फिर भी
बहुत खलती मुझे तेरी कमी है
दहल जाए न फिर इंसानियत ‘जय’
लड़ाई मज़हबी फिर से छिड़ी है