कविता : बनारस की इन राहों में
बनारस की इन राहों में
वेदना की विकल बाँहों में
चल रहा मैं
अनजान बेसहारा
ग्रीष्म की दहकती दाह में
जल रहा मैं
एक गम का मारा
बनारस की इन राहों में
हर साँस बोझिल हो चली
हर पल निकलता जा रहा
मैं भटकता चल रहा
लिए मन में झमेला
आह ! एकदम अकेला
बनारस की इन राहों में
सुनी राहों से तंग आकर
लौटा जो घर में अकेला
तुमको न पाकर सदन में
चुभ रहा जो साँझ का बेला
रात अंधियारी थी घनी
मेरे लिए ही थी जो बनी
मौन रोता , मौन सोता
ऐसे ही अपना जी बहलाता
हाय ! बिल्कुल अकेला
बनारस की इन राहों में
वेदना की विकल बाँहों में
चल रहा मैं
अनजान बेसहारा
ग्रीष्म की दहकती दाह में
जल रहा मैं
एक गम का मारा
बनारस की इन राहों में …..
— नीरज वर्मा “नीर”