सृष्टि को किसने, कैसे व क्यों बनाया?
ओ३म्
हम जिस संसार में रहते हैं वह किसने, कैसे, क्यों व कब बनाया है? इस प्रश्न का उत्तर न तो वैज्ञानिकों के पास है और न हि वैदिक धर्म से इतर धर्म वा मत-मतान्तरों व पन्थों के आचार्यों तथा उनके ग्रन्थों में। इसका पूर्ण सन्तोषजनक व वैज्ञानिक तर्कों से युक्त बुद्धिसंगत उत्तर वेदों व वैदिक साहित्य में मिलता है। इन ग्रन्थों में सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं। यह दोनों ग्रन्थ महर्षि दयानन्द ने वेदों का गम्भीर अध्ययन कर ईश्वर के लोकहितकारी उद्देश्य को पूर्ण रूप से जानकर मनुष्य जाति के हित के लिए लिखे व प्रकाशित किये हैं। आइये, पहले यह जान लेते हैं कि वेद इस बारे में क्या कहते हैं? सृष्टि की रचना व उत्पत्ति से सम्बन्धित निम्न मंत्र प्रस्तुत हैं:
इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद।।1।। ऋग्वेद 10/129/7
तम आसीत्तमसा गूलमग्रे ऽप्रेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम्।।2।। ऋग्वेद
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां तस्मै देवाय हविषा विधेम।।3।। ऋग्वेद 10/129/1
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भुतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।4।।यजुर्वेद 31/2
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म।।5।। तैत्तिरीयोपनिषद्।
इन मन्त्रों के हिन्दी अर्थ प्रस्तुत हैं। (प्रथम मंत्रार्थ) हे मनुष्य ! जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है वह परमात्मा है। (हे मनुष्य) उस उस (परमात्मा) को तू जान और किसी दूसरे को सृष्टिकत्र्ता मत मान।।1।। (द्वितीय मंत्रार्थ) यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामथ्र्य से कारणरूप से कार्यरूप कर दिया।।2।। (तृतीय मन्त्रार्थ) हे मनुष्यों ! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत् हुआ और होगा, उस का एक अद्वितीय पति (स्वामी) परमात्मा तथा जो इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिस ने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्म-देव की (सभी मनुष्य) प्रेम से भक्ति किया करें।।3।। (चतुर्थ मन्त्रार्थ) हे मनुष्यों ! जो सब में पूर्ण पुरुष, जो नाश रहित कारण, जीव का स्वामी और जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमान जगत् का बनाने वाला है।।4।। (पंचम मन्त्रार्थ) जिस परमात्मा की रचना से ये सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं, जिस से जीते और जिस से प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह ब्रह्म है। (हे मनुष्यों, तुम) उसको जानने की इच्छा करों।।5।।
शारीरिक सूत्र 1/2 ‘जन्माद्यस्य यतः।’ है। इसमें बताया गया है कि जिस से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वही बह्म जानने योग्य है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में सृष्टि की रचना व उत्पत्ति से सम्बन्धित कुछ प्रश्न व उत्तर दिये हैं जो महत्वपूर्ण हैं, अतः उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं। पहला प्रश्न है कि यह जगत् परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है वा अन्य से? इसका उत्तर उन्होंने दिया है कि यह जगत् निमित कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है परन्तु इसका उपादन कारण प्रकृति है। इसका अर्थ है कि परमात्मा इस सृष्टि को बनाने वाला है तथा उसने जिस पदार्थ से इस जगत् को बनाया है वह प्रकृति है। दूसरा प्रश्न है कि क्या प्रकृति परमेश्वर ने उत्पन्न नहीं की? इसका उत्तर उन्होंने दिया है कि नहीं। यह अनादि है अर्थात् इस प्रकृति का आदि, आरम्भ, उत्पत्ति आदि नहीं है। तीसरा प्रश्न प्रस्तुत किया है कि अनादि किसको कहते और कितने पदार्थ अनादि हैं? इसका उत्तर दिया है कि ईश्वर, जीव और जगत् का कारण ये तीन अनादि हैं। इससे सम्बन्धित वैदिक प्रमाण उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में प्रस्तुत किये हैं। चारों वेदों व सम्पूर्ण वैदिक साहित्य को पढ़कर जो ज्ञान प्राप्त होता वह उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में बोल चाल की भाषा सरल हिन्दी में प्रस्तुत किया है कि जिससे पाठकों का पूर्ण समाधान हो जाता है।
सृष्टि को किसने बनाया है, इस प्रश्न का उत्तर उपर्युक्त पंक्तियों में मिल गया है और वह है कि इस सृष्टि को सृष्टिकर्ता सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, अनादि व नित्य, सर्वज्ञ ईश्वर ने बनाया है। यह उत्तर पूर्ण वैज्ञानिक एवं स्वीकार्य है। इसका अन्य कोई उत्तर नहीं हो सकता। संसार का कोई भी पदार्थ बिना उसके कर्ता के बनाये बनता ही नहीं है। रचना स्वमेव अपने आप स्वतः नहीं हो जाती। बुद्धिपूर्वक रचना सदैव ज्ञान व शक्ति सम्पन्न किसी चेतन सत्ता द्वारा ही होती व हो सकती है, अन्यथा कदापि नहीं होती व हो सकती है। अतः सृष्टि उत्पत्ति का वैदिक सिद्धान्त कि यह सत्य, चेतन, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर के द्वारा बनी है, सर्वथा सत्य, मान्य, ग्राह्य, तथ्यपूर्ण एवं स्वीकार्य है। कुछ वैज्ञानिक किन्हीं कारणों से भले ही इसे न माने, परन्तु इसका दूसरा कोई उत्तर नहीं है। यह प्रसन्नता की बात है कि भारत में भी बहुत वैज्ञानिक, विज्ञानधर्मी व विज्ञान सेवी लोग हुए हैं जो सभी इस सृष्टि को ईश्वर से उत्पन्न मानते रहे हैं। इतना वर्णन कर दे कि अनादि परमात्मा अनादि सूक्ष्म प्रकृति को पहले परमाणुओं का रूप देता है, परमाणु से अणु बनते हैं और उससे यह दृष्यमान जगत बना है। इसका विस्तार से अध्ययन के लिए महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त ग्रन्थों व वेद सहित दर्शन ग्रन्थों मुख्यतः वैशेषिक दर्शन का अध्ययन करना चाहिये जिससे इस प्रश्न का उत्तर व समाधान हृदयगंम किया जा सकता है।
मूल प्रकृति जड़ है और यह सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इसी से ईश्वर सृष्टि को बनाता है। महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश में मूल प्रकृति से कार्य सृष्टि के बनने पर प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा उन परमसूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। उस को प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता (बनता) है उस का नाम महत्तत्व और जो उस से कुछ स्थूल होता उस का नाम अहकांर से भिन्न-भिन्न पांच सूक्ष्मभूत श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण तथा पांच ज्ञानेन्द्रियां वाक, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा, ये पांच कर्म-इन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैंए उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियांए वृक्ष आदिए उन से अन्नए अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।
देखो ! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि परमात्मा ने रची है कि जिस को विद्वान् लोक देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ो का जोड़, नाडि़यों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफड़ा, पंखा कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम, नखादि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला, कौशल, स्थापनादि अदृभुत सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके विना नाना प्रकार के रत्न व धातु से जडि़त भूमि, विविध प्रकार के वट वृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र, मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूलनिर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कषाय, तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगन्धादियुक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द, मूलादि रचन, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रमण, नियमों में रखना आदि परमेश्वर के विना कोई भी नहीं कर सकता। इसको जारी करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जब कोई मनुष्य किसी पदार्थ को देखता है तो दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। एक जैसा वह पदार्थ है और दूसरा उनमें रचना देखकर बनाने वाले का ज्ञान है। जैसे किसी पुरुष ने सुन्दर आभूषण जंगल में पाया। देखा तो विदित हुआ कि यह सुवर्ण का है और किसी बुद्धिमान कारीगर ने बनाया है। इसी प्रकार यह सृष्टि इसमें नाना प्रकार की विविध रचना बनाने वाले परमेश्वर को सिद्ध करती है।
प्रश्न कि ईश्वर ने सृष्टि को क्यों बनाया? इसका उत्तर है कि उसने अपनी प्रजा, जीवात्माओं के सुख के लिए, इस सृष्टि को बनाया है जिससे यह सभी जीवात्मायें वेद धर्मानुसार कर्म कर असीम सुख परमानन्द वा मोक्ष को प्राप्त कर सकें। संसार के सभी मनुष्य वेद ज्ञान को प्राप्त कर उसमें बताये गये मुक्ति के साधनों का आचरण व उसके अनुसार साधना करके जन्म-मरण से निवृत हो सकें, इसके लिए ही ईश्वर ने मनुष्यों को उत्पन्न किया है। सभी मनुष्यों को कर्म करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है परन्तु फल भोगने में वह परतन्त्र हैं। वह वेदाचरण करेंगे तो सुखी रहेंगे व मुक्त हो सकते हैं अन्यथा वह कर्मों का भोग करने के लिए मनुष्येतर निम्न जीवयोनियों पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि में भेज दिये जायेंगे। वेद, वैदिक साहित्य, महर्षि दयानन्द और वैदिक आर्य विद्वानों के ग्रन्थों में इन विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। पाठकों को स्वाध्याय की आदत डालनी चाहिये। इससे उनकी सभी शंकाओं के उत्तर प्राप्त हो सकेंगे जिससे जीवन के लक्ष्य ‘मुक्ति’ की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। यह भी बता दें कि इस सृष्टि की रचना को हुए आज 1 अरब, 96 करोड़, 53 लाख 8 हजार 115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और अभी 2 अरब 36 करोड़ इकयानवें लाख आठ सौ पिच्चासी वर्ष व्यतीत होने शेष हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा है लेकिन इतनी गेहराई की बातें तो महागियानी ही कर पाते हैं .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी बात सही है परन्तु कोशिश करने से कुछ कुछ तो समझ में आ ही जाता है। ईश्वर ने हमें बुद्धि इसी कार्य के लिए दी है। मनुष्य जितना ज्ञान ग्रहण कर सके उतना तो प्राप्त करना ही चाहिए। पढ़ने में कम समझ में आता है परन्तु उपदेश सुनने व विसुअल देखने से अधिक समझ में आ जाता है। हमें अपनी क्षमता के अनुरूप प्रयास अवश्य करना चाहिय। यह मेरा मत है। हार्दिक धन्यवाद सहित सादर नमन।
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी बात सही है परन्तु कोशिश करने से कुछ कुछ तो समझ में आ ही जाता है। ईश्वर ने हमें बुद्धि इसी कार्य के लिए दी है। मनुष्य जितना ज्ञान ग्रहण कर सके उतना तो प्राप्त करना ही चाहिए। पढ़ने में कम समझ में आता है परन्तु उपदेश सुनने व विसुअल देखने से अधिक समझ में आ जाता है। हमें अपनी क्षमता के अनुरूप प्रयास अवश्य करना चाहिय। यह मेरा मत है। हार्दिक धन्यवाद सहित सादर नमन।