ग़ज़ल
नजर का फर्क मैं पहचानता हूँ
बिगाना और अपना जानता हूँ ।
भले नाराज मुझसे ये जहाँ हो
वही करता , जिसे मैं ठानता हूँ ।
मुझे काफ़िर बुलाता है जमाना
खुदा अपना तुझे मैं मानता हूँ ।
मुसीबत लाख मेरा हाथ पकड़े
नही मैं हौशले को हारता हूँ ।
न परखो धर्म चाहत आप मेरी
वफ़ा में जान तक मैं वारता हूँ ।
— धर्म पाण्डेय