ग़ज़ल
भागता ही जा रहा है बेतहाशा
आदमी के हाथ लगती बस हताशा
मुस्कराहट लब से गायब हो रही है,
पाँव फैलाए खड़ी जड़ तक निराशा
नष्ट होती जा रही वो स्वर्ण-मूरत,
वर्षों में पुरखों ने जिसको था तराशा
सुबह का भूला अभी लौटेगा शायद,
सूर्य की अंतिम किरण तक है ये आशा
है न भक्तों को निवाला भी मयस्सर,
देवता कुर्सी पे खाते हैं बताशा
जान पंछी की निकलने पर तुली है,
और सारे देखने में हैं तमाशा