कहानी

डायरी के पन्नों से

तकरीबन 15 रोज हो गए हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई, यूँ तो ज़िंदगी ऊपर से बिलकुल सहज है मगर अंदर बहुत कुछ दरक गया है…..16 साल….एक युग कहलाता है…..इन 16 सालों में क्या क्या नही गुज़र गया….अब तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं।तुमने एक बार कहा तो होता कि तुम्हारी ज़िंदगी में कोई धीरे धीरे मेरी जगह ले रहा है।
ऐसी क्या कमी थी मेरे प्यार,विश्वास एउम समर्पण में….गर सोचने बैठू तो दिमाग कि नसें फटने लगती हैं। उफ कितनी शातिरता से तुम दोनों तरफ रिश्ते निभाते रहे…किसी को कहीं कोई शक नहीं हुआ…और आज जब उसकी ज़िंदगी की आखिरी घड़ी है तो तुम मुझसे ये अपेक्षा कर रहे हो कि मैं तुम दोनों कि औलाद को अपना लूँ….
जानती हूँ इसमे उस बच्चे का कोई कसूर नहीं…न हीं उस औरत की…वो तो जानती भी नहीं होगी कि तुम एक साथ दो बंधनों में बंधे हो…..मगर मेरा दिल इतना महान नहीं हो सकता….जब जब उस बच्चे को देखूँगी मुझे तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी बेवफ़ाई नज़र आयेगी…मुझे माफ करना क्यूंकि कहते है कि सौतन काठ कि भी बर्दाश्त नहीं होती
(आखिर सहनशीलता की भी एक हद होती है….मेरे अंदर जो घुटन चीख रही है गर बाहर आ जाए तो कयामत हो जाए)
आखिर आज मेरे सब्र का बाँध टूट हीं गया…आखिर कब तक तुम्हारी खामोशी को टूटने का इंतज़ार करती….
मगर यदि मुझे पता होता कि तुम्हारा बोलना मेरे जीवन में एक ऐसा तूफान लेकर आएगा,जिससे मैं शायद ताउम्र उबर नहीं पाऊँगी तो शायद मैं हीं खामोश हो जाती….इतना बड़ा विश्वासघात….उफ़्फ़…ज़िंदगी ने किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया….सोचती हूँ तो अपना हीं अस्तित्व नगण्य नज़र आता है।
तुम बोलते रहे…अपनी सच्चाई का एक एक पन्ना मेरे सामने खोलते रहे…और तुम्हारा एक एक शब्द मेरे कानों में पिघले शीशे कि तरह महसूस होता रहा….कभी नहीं पूछूँगी कि मेरे प्यार और समर्पण में कहाँ कमी रह गई….इन सवालों के जबाब के लिए भी मैं तुम्हारे शब्दों का इंतज़ार करूंगी…जैसे अब तक करती आई हूँ।

(आखिर खामोशियां भी तो चीखती हैं, एक लंबे समय से जिस घर की दीवारें खिलखिलाती थी वो चुप हो गई हैं….ज़िंदगी की एक छोटी सी नासमझी….क्षणिक भावनाओं पर काबू न कर पाना इंसान को किस मोड पर लाकर खड़ा कर देती है।
उसके साथ जुड़े सभी रिश्ते इस तनाव से मुक्त नहीं हो पाते। अब तो बच्चा भी बहुत कुछ समझने लगा है…शायद मेरी खोखली हंसी में छुपे दर्द को समझने की कोशिश करता है…कभी-कभी तो अजीब सवालात करता है…..
तुम्हीं क्यूँ नहीं दे दे देते वो सारे जबाब जो मैं उसे नहीं दे पाती।
कभी कभी इतनी घुटन महसूस होती है कि मन करता खुद को खत्म कर लूँ…या कहीं ऐसी जगह चली जाऊँ जहां मुझे कोई नहीं जनता हो….मगर जानते हो,जब भी उस बच्चे को देखती हूँ जिसे तुमने नाजायज तरीके से मेरी गोद में लाकर डाल दिया….नहीं नहीं….मैं उसे नाजायज नहीं कह सकती क्यूंकि भले हीं उसकी माँ के साथ तुम्हारा जायज़ रिश्ता ना रहो हो,मगर बच्चा कोई नाजायज नहीं होता…कभी कोई जन्मदेने वाली स्त्री नाजायज नहीं होती…हाँ रिश्ते नाजायज हो जाते हैं। कोई और जाने या जाने मगर मैं तो जानती हूँ कि तुम उसके पिता हो…..हाँ तो मैं यही कह रही थी कि उस बच्चे को देखकर आँखें नाम हो उठती हैं….साथ रहते रहते तो जानवर से भी प्यार हो जाता है…फिर वो तो इंसान है…वो भी तुम्हारा खून…..सोचती हूँ तो दिल में बहुत पीड़ा होती है ।उसकी मासूम आँखें जैसे पूछती हों मुझसे…क्या तुम भी मुझको छोड़ कर चली जाओगी?
तुम क्या समझो कितने दिनों में अगर मैं हंसी नहीं तो शायद रोई भी नहीं।पहले तो तुम्हारी बाहों में रो लेती थी….मगर अब तो उन बाहों से भी किसी और की ख़ुशबू आती है,और तुम तो जानते हो कि मैं अपने ‘स्व’ में बंटवारा नहीं कर सकती।हम साथ चल रहे हैं इसलिए नहीं कि हमारे बीच कोई रिश्ता बाक़ि रह गया है…बल्कि इसलिए कि बच्चे पर…मेरा मतलब ‘बच्चों’ पर कोई विपरीत प्रभाव ना हो।
(कितना मुश्किल है बिना बंधे रिश्तों को निभाना)
कशमोकश में कब सुबह से शाम हुई पता हीं नहीं चला….शायद कुछ पल के लिए आँख भी लग गई थी मेरी…होश तो तब आया जब एक कोमल हाथ ने मुझे छुआ…’माँ’ उठो ना बहुत भूख लगी है…एक पल को मेरी अंतरात्मा चीख उठी…ओह इसमें इस मासूम का क्या दोष है…इसे तो ये भी नहीं पता कि जिसे वो माँ कह रहा है वो उसकी जन्मदात्रि नहीं। मेरे अंदर की ममता नें मुझे झंकझोर कर रख दिया…मैंने खींच कर उसे सीने से लगाया…जैसे कहीं मुझसे दूर ना हो जाए…बाहर देखा…शाम ढाल चुकी थी…मगर तुम नहीं आए थे…
वैसे भी आजकल तुम्हारा घर में होना भी ना होने के समान हीं था…मैंने उस मासूम को गोद में उठाया और किचेन की तरफ बढ़ गई।आज मेरे मन ने उसका नामकरण किया…’अंश’….हाँ ये तुम्हारा अंश हीं तो था जो मेरा बनने लगा था।मैंने उसे धीरे से गोद से उतारा और उसके खाने की तैयारी में लग गई…चलो अब उसको खाना खिला दूँ…मगर पता नहीं कब वो जाकर सोफा पर सो चुका था…गहरी नींद में।मैंने धीरे से उसे उठाया और ‘शौर्य’ (हम दोनों का बेटा)के बगल में सुला दिया…पहली बार गौर किया था मैंने…कितने समान थे दोनों के चेहरे…आखिर हो भी क्यूँ ना…थे तो दोनों हीं तुम्हारे बच्चे।
जानती हूँ कि शौर्य तुमसे कुछ कहता नहीं…मगर बहुत नाराज़ है तुमसे…बिलकुल मेरी तरह…खुद को ठगे जाने के एहसास से।मगर मुझे उसे समझाना होगा…उसे भी ‘अंश’ को स्वीकार करना होगा वो भी पूरे हृदय से।जानती हूँ थोड़ा मुश्किल है मगर नामुमकिन बिलकुल नहीं…मेरा बेटा है…समझ जाएगा… ।
अचानक एक खटके से मेरी नींद खुल गई…पता नहीं कब बच्चों को देखते हुए आँख लग गई थी।देखा तुम आ गए हो…’बच्चे सो गए’…तुम्हारी धीमी सी आवाज़…मैंने खामोशी से सर हिला दिया…बहुत दिनों बाद तुम मेरे करीब आए और मेरा हाथ पकड़ कर वहीं जमीन पर बैठ गए…तुम्हारा स्पर्श ना जाने क्यूँ बहुत बेगाना सा लगा।’खाना लगाऊँ’ पूछा मैंने….मगर शायद तुम आज भी कहीं से खाकर आए थे…और मेरी खाने की इच्छा जाती रही।देखा ‘अंश’ के लिए निकाला हुआ खाना सूखने लगा था…मैंने धीरे से प्लेट उठाया और किचेन की तरफ बढ़ गई।अब तो शायद ये रोज़ का सिलसिला हो गया था…ज़िंदगी जैसे खुद को हीं जीना भूल गई हो….तुम थे तो खुशियाँ थीं…तुम्हारे बिखराव के साथ हीं इस घर की सारी खुशियाँ बिखर गई हैं…घर का हर सदस्य सिर्फ ‘रोबोट’ बनकर रह गया है…वो चाय मैं हूँ…तुम हो या ‘शौर्य’ और ‘अंश’।
तुमने बच्चों की तरफ देखा…दोनों को साथ देखकर तुम्हारे चेहरे पर एक सुकून की रेखा खींच आई थी…मेरी तरफ देखते हुए तुम्हारी आँखों में मेरे लिए कृतज्ञता के भाव थे…मगर यकीन मानो मुझे अब वहाँ सिवा फरेब के कुछ नहीं दिखता।ये ठीक है कि मैंने ‘अंश’ को अपना लिया था…मगर इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं कि माने तुम्हें माफ कर दिया।
मैंने अपने दर्द को छुपने के लिए तुम्हारी नज़रों से अपने चेहरे को घूमा लिया और धीरे से उठकर दूसरे कमरे में आ गई…जानती हूँ आज तुम मुझसे कुछ कहना चाह रहे थे…शायद वो सबकुछ जो मैं खुद इतने दिनों से तुमसे सुनना चाहती हूँ…मगर आज मैं शायद कुछ भी सुनने की स्तिथि में नहीं हूँ।
(वक़्त हमेशा अपनी इच्छानुसार नहीं होता)
सुबह कुछ देर से आँख खुली…देखा ‘शौर्य’ स्कूल जा चुका था…ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ कि मैं इतनी देर तक सोती रहूँ या बच्चा मुझसे बिना कुछ कहे स्कूल या कहीं और चला जाए…उफ़्फ़ ये क्या होता जा रहा है।देखा ‘अंश’ अभी भी गहरी नींद में था…आज ‘शौर्य’ के स्कूल में हीं उसके एडमिशन की बात करनी है…पहले हीं काफी देर हो चुकी है।मैं चुपचाप आकार सोफ़े पर बैठ गई…तुम भी वहीं बैठे आज का अख़बार देख रहे थे…मगर शायद तुम्हारी निगाहें हीं वहाँ थी क्यूंकि तुम्हारे चेहरे से तुम्हारे अंदर का द्वंद साफ झलक रहा है।सच मानो तो एकबारगी तुम पर बहुत प्यार आया (मैंने हमेशा हीं तुम्हें बहुत प्यार किया) जी चाहा कि हथेलियों में तुम्हारे चेहरे को लेकर चूम लूँ…मगर नहीं…हर बार तुम्हारी बेवफ़ाई नागफनी सी हमारे रिश्ते के बीच उभर आती है।चाय का कप तुम्हारे सामने रखते हुए मैंने कहा…’अंश’ के एडमिशन के लिए जाना है…तुम्हारी आँखों में कृतार्थ के भाव उभर आए…मैंने मन हीं मन सोचा…मैंनें तो कभी भी अपने फर्ज़ से मुंह नहीं मोड़ा…तुम्हीं अपने फर्ज़ से विमुख हो गए। आज तक जो कुछ भी हमारे बीच था वो हमारा प्यार…विश्वास…और एक-दूसरे के लिए समर्पण हीं था…मगर आज ज़िंदगी इस मोड़ पर आ गई है कि इन सबकी जगह ‘एहसान’ ने ले लिया है।मैंने एक झटके से अपने सर को झटका और किचेन में आ गई…शायद अब ज्यादा सोचूँगी तो पागल हो जाऊँगी…फिर ‘शौर्य’ को कौन संभालेगा…और अब ‘अंश’ भी तो है…हाँ अब तो वो पूरी तरह मेरी ज़िम्मेदारी है…मुझे खुद को संभालना हीं होगा…सोचते हुए बेमकसद हीं आँखों में आँसू आ गए…कभी नहीं सोचा था कि ज़िंदगी कभी यूं मजबूरी में भी जीनी पड़ेगी।
देख रही हूँ ‘शौर्य’ दिन-ब-दिन तुमसे दूर होते जा रहा है…कुछ ज्यादा हीं खामोश रहने लगा है…जब भी उससे कुछ कहना चाहा…उसका एक हीं जबाब होता…’मम्मी प्लीज…मैं अब बच्चा नहीं रहा…आप रिलैक्स रहिए’।कैसे रिलैक्स रह सकती हूँ मैं…?? चंद दिनों में हीं उसका जन्मदिन है मगर उसने पहले हीं कह दिया…’माँ कोई पार्टी नहीं होगी प्लीज’…शायद हालात ने वक़्त से पहले उसका बचपन छीन लिया।आज बात करूंगी उससे…इतना भी बड़ा हो गया जो मुझसे अपनी भावनाओं को छुपने लगे…हाँ मुझे उससे बात करनी हीं होंगी।
(इस खामोशी के पीछे छुपे हुए तूफान को तुम समझो या ना समझो…मगर मैं बखूबी समझती हूँ)

निर्णय ले लिया थे मैंने कि ‘अंश’ के एडमिशन के बाद दोनों बच्चों को लेकर कहीं पार्क में ले जाऊँगी और वहीं ‘शौर्य’ से बात करूंगी।’अंश’ अभी भी सो रहा था…नाश्ते की प्लेट तुम्हारे सामने रख कर जल्दी जल्दी किचेन की सफाई की और बाथरूम में घुस गई।वहाँ भी हर पल ‘शौर्य’ का हीं ख्याल रहा।फ्रेश होकर बाहर आई तो देखा कि तुम्हारी प्लेट यूं हीं पड़ी है…अब तो शायद मुझे आदत भी हो चुकी थी इन बातों की।
मैं चलूँ क्या तुम्हारे साथ एडमिशन के लिए ??…धीरे से पूछा था तुमने…नहीं…मैं कर लूँगी (इससे पहले कभी तुम कब गए हो ‘शौर्य’ के स्कूल में…वो चाहे एडमिशन की बात हो या पैरेंट्स मीटिंग की)मैं नहीं चाहती की ‘शौर्य’ के दिल को और ठेस पहुंचे… ।
‘अंश’ को उठा कर उसे फ्रेश किया मैंने और अपनी और उसकी प्लेट एक साथ लेकर बैठ गई…स्कूल के नाम पर उसका उत्साह देखते बन रहा था…तुम शायद कुछ कहना चाह रहे थे…मगर अपने प्रति मेरी निष्क्रियता देखकर खामोश हो…सच भी तो है…तुमने सोचा होगा कि तुम्हारी सच्चाई जब मेरे सामने आएगी तो मैं तुमसे लड़ूँगी…चिल्लाऊँगी तुम पर…मगर शायद तुम्हें ये नहीं पता कि विश्वास के टूटने पर गहरी निस्तब्धता के सिवा और कुछ नहीं बचता…अपने भीतर हीं इतना शोर होता है कि बाहरी दुनियाँ खामोश हो जाती है।
मैंने ‘शौर्य’ के लिए टिफिन पैक किया…घर की दूसरी चाभी ली और ‘अंश’ को लेकर बाहर निकल गई।स्कूल जाकर देखा कि अभी तुरंत लंच की छुट्टी हुई थी…’शौर्य’ एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था…बिलकुल खामोश,अपने आप में खोया हुआ।’भैया ssssss’ कहते हुए ‘अंश’ उसके सामने खड़ा हो गया…मैंने गौर से उसके चेहरे को देखा…बिलकुल निर्विकार…एक टीस सी हुई मन में…अपने पापा की गलती की सजा ये खुद को क्यूँ दे रहा है??
मैंने टिफिन उसको देते हुए कहा…सुबह यूं हीं आ गए…खा लो….’भूख नहीं है’ उसने धीरे से प्रतिरोध किया…’मैं खिला दूँ…तुम कहते हो ना कि मम्मा आपके हाथ से कुछ भी खा लो अच्छा लगता है’…कोई और दिन होता तो वो ज़ोर से बोलता ‘मम्मा आप भी ना…फ़्रेंड्स क्या कहेंगे’…मगर उस पल उसने कुछ भी नहीं कहा’
खाते हुए मेरे हाथों को पकड़ उसने कहा ‘मम्मा’ मुझे आपकी बहुत जरूरत है’….मैंने ज़ोर से अपनी आँखें बंद कर ली…और मन हीं मन कहा…’मैं तो तुम्हारे लिए…नहीं अब तो तुमदोनों के लिए हीं जिंदा हूँ’।दोनों को मजबूती से समेट कर मैंने अपने सीने से लगा लिया…नहीं मैं अपने बच्चों को हरगिज़ टूटने नहीं दूँगी…मन को मजबूत किया मैंने और दोनों को लेकर स्कूल के ऑफिस के तरफ बढ़ गई।
(अब हमें हीं एक-दूसरे का सहरा बनना है)
बहुत मुश्किल पल था वो जब मैं ‘अंश’ के एडमिशन का फ़ॉर्म भर रही थी…आज तक इकलौता बच्चा माने जाने वाले ‘शौर्य’ को अचानक एक भाई आ गया था…माँ-बाप का नाम भरते हुए एक बार काँप उठी थी मैं मगर बहुत कुशलता से ‘शौर्य’ नें मुझे संभाल लिया था…मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रख कर उसने कहा था…’मम्मा अपना और पापा का नाम दीजिये प्लीज’…मैं क्षण भर उसकी आँखों में देखती रही…गजब का आत्मविश्वास था वहाँ।दो दिनों बाद से हीं ‘अंश’ की भी क्लासेज शुरू हो जाएंगी…मैं दोनों बच्चों को लेकर स्कूल से बाहर आ गई…अब मेरे साथ मेरे दोनों जहाँ थे जिसमें शायद तुम्हारी कोई जगह ना थी।मैंने सबसे पहले उन्हें उनके पसंद का खाना खिलाया और फिर उनके साथ पास के हीं पार्क में आ गई…’अंश’ तो बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो गया और मैं ‘शौर्य’ के साथ एक पेड़ के नीचे बैठ गई…दोनों हीं खामोश थे…लेकिन मुझे तो आज बेटे से बात करनी हीं थी…’शौर्य’…… इससे पहले कि मैं कुछ कहती उसने खुद हीं कहा…मम्मा डोंट वरी…कल रात जब आपने मेरे कमरे को ‘अंश’ के साथ शेयर किया था उसी वक़्त मैंने उसे स्वीकार कर लिया था…मम्मा मुझे परेशानी हुई थी खुद को संभालने में…मगर अब मैं अब बिलकुल ठीक हूँ…आप मत सोचिए प्लीज…’अंश’ अब आपके साथ-साथ मेरी भी ज़िम्मेदारी है…आइ प्रॉमिस उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि वो मेरा सगा भाई नहीं।मेरी आँखों में आँसू आ गए…कितनी बखूबी से खुद को बाँट लिया था ‘हमारे बेटे’ नें ‘तुम्हारे बेटे’ के साथ…जिस बेटे का दायित्व तुम कभी सही ढंग से नहीं निभा पाये आज उसी बेटे नें ‘तुम्हारे बेटे’ का दायित्व अपने नन्हें कंधों पर ले लिया।घर लौटी तो खुद को काफी दिनों बाद कुछ हल्का महसूस किया मैंने।देखा दोनों बच्चे आराम से अपना कोई पसंदीदा कार्टून देख रहे हैं…मैं भी जाकर उनलोगों के साथ हीं बैठ गई…’अंश’ नें पूछा था मुझसे…’माँ आप कुछ और देखना चाहती हैं’….’नहीं मैं तो यूं हीं तुमदोनों को देखने आ गई’ कहते हुए आँखें भर आई मेरी…नहीं जानती कि मेरे आँसूओं का सबब उन्हें समझ में आया या नहीं…मगर दोनों मुझसे यूं लिपट गए जैसे कह रहे हो…’मम्मा आप प्लीज रोइए मत…हम हैं ना आपके दो मजबूत कंधे’…हाँ मेरे दो मजबूत कंधे…जिन्हें तुमने कमजोर करने में अब तक कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
(अति विश्वास में हीं अक्सर विश्वासघात होता है…तुम इस बात का सबसे बड़े उदाहरण हो)
सुबह से हीं तबीयत खराब हो गई थी…आज तो मुझे ‘अंश’ के स्कूल यूनिफ़ोर्म और बुक्स के लिए जाना था…’शौर्य ने पूछा था…’मम्मा आप ठीक है ना?’…हाँ…मैं बिलकुल ठीक हूँ…पर मम्मा आपका माथा तो गरम है…सर को छूते हुए कहा था उसने।फिर उसने पूछ था ‘मम्मा अंश का सारा समान मैं ले आऊँगा…डोंट वरी’ (अभी तक कभी अपना कुछ भी तो नहीं खरीदा ‘शौर्य’ नें)…नहीं मैं आ जाऊँगी ना,तुम परेशान मत हो…कहा था मैंने…मगर बेटा तो मेरा हीं था…अगर जिम्मेवारी ली तो उसे पूरी करनी है…जबरदस्ती पैसे ले गया था मुझसे और स्कूल से लौटते वक़्त ‘अंश’ की किताबें और यूनिफ़ोर्म लेकर आया था।ये पहला कदम था ‘शौर्य’ का ‘अंश’ के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की तरफ।
कितना उत्साहित था अंश अपनी नई ड्रेस और बुक्स देखकर…एक हीं स्कूल में दोनों के होने से मैं भी निश्चिंत थी।तुम बारबार हमसब के साथ आना चाहते हो…मगर कुछ कह नहीं पाते…किसी काम के लिए भी कोई तुमसे नहीं कहता…चलो अच्छा है…तुम्हारी बेवफ़ाई नें हमसबको आत्मनिर्भर बना दिया है।
दोनों बच्चे एक दूसरे के साथ बहुत अच्छी तरह एडजस्ट कर गए हैं…मुझे तो बस ‘शौर्य’ की चिंता थी…क्यूंकि ‘अंश’ तो कुछ भी नहीं जानता या समझता है…मगर ‘शौर्य’ तो उस उम्र में आ हीं चुका है जो घर के परिवेश को समझ सके….जब मुझे खुद को समझाने में इतना वक़्त लगा तो उसे कितनी तकलीफ हुई होगी।
हमदोनों हीं अब नदी के उन दो किनारे की तरह थे जो निरंतर साथ बहते हुए भी कभी मिल नहीं पाते…ऐसा नहीं कि मैंने तुम्हारी परवाह करनी छोड़ दी है…मगर हाँ वो सारे अधिकार जो एक पति के रूप में मैंने तुम्हें दिये थे वो मैंने समेट लिए हैं…हमारा कमरा…हमारा बिस्तर आज भी एक हीं है…मगर वो रिश्ता कहीं खो गया है जो हमारे बीच साँसे लेता था..।मैंने कभी भी तुमसे ‘उसके’ बारे में कोई बात नहीं की…कई बार तुमने कुछ कहना भी चाहा तो मैंने नहीं सुना…मेरी खामोशी मेरी मजबूती और तुम्हारी कमजोरी बनती जा रही है…।दुख तो ये है कि ‘अंश’ भी तुमसे ज्यादा मुझे प्यार करता है…हाँ बच्चे तुमसे कुछ नहीं कहते…’शौर्य’ को कभी तुमने अपने दिल के करीब आने नहीं दिया और ‘अंश’ सारी वास्तविकताओं से दूर मुझमें हीं सभी रिश्तों को जीता है…सोचते सोचते वक़्त का पता हीं नहीं चला…देखा रात के 12 बज चुके थे…मैं एक बार बच्चों को देखने उनके कमरे में आ गई…देखा दोनों सो चुके थे…मैंने कमरे की लाइट ऑफ की और तुम्हारे बगल में आकार लेट गई…तुम भी सो चुके थे…तुम्हें देखते हुए अंदर बहुत प्यार उमड़ता रहा (मैंने तो हमेशा हीं तुमसे बहुत प्यार किया)…मगर अगले ही पल तुम्हारी बेवफ़ाई एक मजबूत दीवार बनकर हमारे बीच खड़ी हो गई।मैंने तुम्हारे चेहरे से अपनी नज़रों को हटाया और सोने का प्रयत्न करने लगी।

आज सेकंड साटर्डे की छुट्टी थी…देखा सुबह से हीं दोनों भाई नई किताबों में कवर लगाने में व्यस्त हैं।’अंश’ तो बहुत उत्साहित है कि परसो से वो भी भैया के साथ उसी के स्कूल में जाएगा।मैंने देखा तुम हमेशा की तरह आज का अखबार लेकर बैठे हो…मगर तुम्हारा चेहरा बता रहा था कि तुम्हारी निगाहें भले हीं अखबार पर हो मगर मन कहीं और है।
कल हीं बच्चों ने बोल दिया था मम्मा कल इडली बनाइएगा…रात में हीं इडली की सारी तैयारी कर दी थी मैंने।बच्चों को दूध और तुम्हें चाय थमा कर जल्दी से किचेन में आ गई थी मैं…बार बार निगाहें कमरों में अपने आप में व्यस्त बच्चों पर जा ठहरती थी।कितनी समानता है दोनों में…टेस्ट से लेकर चेहरा तक मिलता जुलता था…कौन कह सकता था कि ‘अंश’ को मैंने जन्म नहीं दिया…कोख भले हीं अलग थी मगर संतान तो दोनों तुम्हारे हीं थे।हमारे स्वीकार करने के बाद से सबने ‘अंश’ को सहर्ष स्वीकार कर हीं लिया था(माँ कि कही बात याद आ गई कि मजबूत इमारत के लिए बुनियाद की मजबूती बहुत जरूरी है)…मैं एक बार फिर ‘शौर्य’ के बचपन को उसमें जीने लगी थी।कौन कहता है कि इंसान का जन्म मायने रखता है…नहीं इंसान को बनाने में उसकी परवरिश हीं मायने रखती है…और मुझे अपने परवरिश पर पूरा यकीन है।
मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम अपने हीं घर में बेगानों से रहो…’शौर्य’ तो पहले से हीं तुमसे ज्यादा नहीं बोलता…अच्छी बुरी जो भी बात हो मुझसे हीं शेयर करता है…और मैं…???…पहले इतनी दूरी नहीं थी हमारे बीच…मगर अब…ऐसा नहीं कि मैं तुमसे बात नहीं करती…या तुम्हारी आवश्यकताओं को नहीं पूरा करती…संवाद भी शायद आवश्यकतानुसार हीं रह गए हैं।हाँ ‘अंश’ जरूर सारी सच्चाईयों से अनभिज्ञ तुंहरी गोद में उछलता रहता है…सच मानो ये देखकर ना चाहते हुए भी अंदर कहीं कुछ बुरी तरह दरक जाता है। पापा अक्सर कहते हैं मुझसे…’बेटा गजब की हिम्मत है तुम्हारे अंदर’…हाँ ‘शायद’…सोचती हूँ मैं…वक़्त और हालात इंसान के अंदर हिम्मत पैदा कर हीं देते हैं।
उफ़्फ़ क्या हो गया है मुझे ??…तेज़ी से अपने सर को झटकती हूँ मैं…स्वीकृति में इतनी शंकाएँ क्यूँ??…नहीं मुझे खुद को संभालना होगा…मगर जब भी तुम मेरे सामने आते हो मैं बहुत असहज हो जाती हूँ…आखिर हूँ तो मैं भी एक इंसान हीं… ।’मम्मा इडली बन गई क्या’….आवाज़ आती है दोनों बच्चों की…अच्छा हुआ मेरी तंद्रा तो टूटी….’हाँ आ जाओ टेबल पर’ कह कर मैं जल्दी से उन्हें नाश्ता सर्व करती हूँ…’तुम भी आ जाओ’…आज बहुत दिनों बाद हम सभी एक साथ नाश्ता किए…ऐसे छोटे परिवार की इच्छा तो मेरे अंदर भी रही…मगर इस तरह से नहीं जैसे आज है। (सपना पूरा भी हुआ तो कुछ यूं कि बाकी सारे सपनें टूट गए)
जानती हूँ मैं कि तुम्हारी निगाहें हर पल मुझमें पहले वाली ‘अनु’ को ढूंढती हैं…मगर ‘राज’…वक़्त तो गतिमान है…इसलिए वक़्त के साथ हालात और जज़्बात दोनों बदल जाते हैं।तुम नहीं जानते कि अपने एहसासात को कुचलने में मैं कितनी बार टूट कर बिखरी हूँ…लेकिन जब भी ज़िंदगी से हारी बच्चों का चेहरा सामने आ गया।कई बार सोचा कि इस तरह घुट कर जीने से बेहतर है कि जीवन को एक नया मुकाम दें…मगर ऐसा नहीं हो पाता…जानते हो क्यूँ…क्यूंकि हर बार मेरा ‘स्वयं’ मेरे सामने आकार खड़ा हो जाता है।तुम्हीं बताओ कि अगर मैंने ऐसा कुछ किया होता तो तुम क्या इतने हीं सहज होते ???…नहीं ना….
याद है तुम्हें एक बार मैंने तुम्हारे सामने तुम्हारे मित्र ‘मिस्टर शर्मा’ की तारीफ कर दी थी तो ना जाने कितने दिनों तक तुम मुझसे नाराज़ रहे…यहाँ तक कि उनके नाम का ताना देने से भी नहीं चूकते थे तुम…जबकि ना जाने कितनी बार तुम मेरे सामने दूसरी औरतों कि तारीफ करते रहे और मैं चुपचाप सुनती रही।’राज’ ये कैसा मापदंड है तुम्हारे पुरुष-प्रधान समाज का…सारे नियम अपने हक़ में करके खुद को ऊंचा कर लिया…
वक़्त की रफ़्तार के साथ बच्चे भी बड़े हो गए…’शौर्य’ का एडमिशन आईआईटी कानपुर में हो गया और ‘अंश’ 8 th में आ गया…आज ‘शौर्य’ को पढ़ाई के लिए कानपुर जाना था…उसके आगे के भविष्य की खुशी और जाने की पीड़ा हम सभी के दिल में अलग अलग है…मगर है तो एक हीं दर्द। ‘अंश’ तो मानो भाई के बिना अधूरा हो गया है…’शौर्य’ भी सुबह से उसे कुछ ना कुछ समझाता हीं रहा…तुमसे तो वैसे हीं कम बोलता है…सिर्फ इतना हीं बोल पाया था…’पापा अपना और सब का खयाल रखिएगा’…मैंने देखा था तुम्हारी भरी हुई आँखों को…काश तुम उसको सीने से लगा पाते…मगर पिता-पुत्र के बीच इस दीवार को तुमनें हीं तो बुलंद किया था ‘राज’…. ।मेरे कमरे में जाने से पहले बहुत देर तक बैठा रहा ‘हमारा बेटा’…मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में लेकर बोला…’मॉम आपने अपना सब कुछ हमारे लिए कुर्बान कर दिया…कभी कुछ सोचने का वक़्त हीं नहीं मिला…देखा है आपने अपने चेहरे को…देखिये आपकी आँखों के नीचे काले घेरे हो गए हैं’…कहते हुए आईने के सामने खड़ा कर दिया था उसने मुझे…
‘अरे नहीं…कुछ नहीं हुआ मुझे…बस थोड़ी सी हरारत है’ कहते हुए तेज़ी से मूड़ गई थी मैं…जानती हूँ कि ‘शौर्य’ से अपनी भावनाओं को छिपाना बहुत मुश्किल है मेरे लिए…बचपन से हीं वो मुझे मुझसे कहीं ज्यादा समझता रहा है।दोनों बच्चे देर तक मेरे पास हीं बैठे रहें…तुम्हें भी अपने पास बुला लिया था मैंने…मैं नहीं चाहती थी कि इन अनमोल पलों में तुम हमारे साथ ना रहो।किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देखते रहे थे तुम बच्चों को…आखिर शाम हो हीं गई…अब तो ‘शौर्य’ की ट्रेन का भी वक़्त होने जा रहा है।ओह कितने मुश्किल होते हैं ये पल जब अपने हीं दिल के टुकड़े को खुद से अलग करना हो…सोचते हीं मैं दौड़ कर बाथरूम में आ गई थी…आंसूँ थे कि रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और फर्ज़ था कि हर पल सामने खड़ा था।
(ज़िंदगी के फर्ज़ को निभाने में मेरा वजूद कहाँ खो गया कुछ पता हीं नहीं चला…वक़्त नें कब किसका इंतज़ार किया जो मेरा करता)
कितना मुश्किल हुआ था सबको ‘शौर्य’ के बिना ज़िंदगी को स्वीकार करने में…खास तौर से ‘अंश’ बहुत अकेला हो गया…भाई के बिना कमरे में अकेले रहने की आदत जो नहीं थी। रोज़ रात में खाना खाते वक़्त ‘शौर्य’ से बात करना हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया था।कल हीं बताया था ‘अंश’ नें कि ईद कि छुट्टियाँ पड़ी हैं और ‘शौर्य’ घर आ रहा है…हालांकि उसने मना किया था उसे मुझे बताने से…सर्प्राइज़ जो देना है उसे…मगर ‘अंश’ इस खुशी को अकेले कहाँ पचा पा रहा था। धीरे से मुझे बाहों में लेकर बोला…’माँ आपको इक बात बतानी है…मगर आप प्रॉमिस करो कि भाई को नहीं बताओगी कि मैंने आपसे कुछ कहा’…लाड़ से कहा था मैंने…’बता तो…कहीं कोई पसंद तो नहीं आ गया उसे…कैसे नाराज़ हुआ था अंश…’माँ आप भी क्या क्या सोच लेती हैं…एक्चूली भैया कल आ रहे हैं…आप उनके पसंद की सारी चीज़ें माँगा लीजिये’…एक पल को कानों पर विश्वास नहीं हुआ…हुलस कर ‘अंश’ को बाहों में भर लिया मैंने…हाँ ‘शौर्य’ को जो जो पसंद है वही सब बनाऊँगी मैं खाने में…उफ़ कितना कुछ करना है…एक समय के बाद दौड़ कर गई थी तुम्हारे पास…’राज’ सुना आपने…जल्दी से फ्रेश होकर बाज़ार जाइए प्लीज… ।
एक लंबे समय बाद तुमने शायद मुझे इतना खुश देखा था…आश्चर्य से मुझे देखते हुए पूछा तुमने…’क्या हुआ’….वो कल ‘शौर्य’ आ रहा है ना,इसलिए उसके पसंद की सारी चीज़ें ले कर आइये आप’…बहुत खुश हुये थे आप…और खुशी की अतिरेक में मुझे बाहों में भर लिया था।एक पल को कुछ भी समझ में नहीं आया…मैं भी ना जाने कब तक तुम्हारे सीने से लगी रही…होश तो तब आया जब ‘अंश’ भी चुपके से आकर हमसे लिपट गया…तुमने कातर निगाहों से मुझे देखा था…डर गए थे तुम कि कहीं मुझे ये सब नागवार ना गुज़रे…मगर मैंने मुस्कुरा कर ‘अंश’ को भी अपनी बाहों में ले लिया…हाँ…मुझे अपनी छोटी सी दुनियाँ अपनी बाहों में चाहिए।
(बच्चे माँ-बाप के बीच के सबसे मजबूत कड़ी होते हैं)

रश्मि अभय

नाम-रश्मि अभय पिता-श्री देवेंद्र कुमार अभय माता-स्वर्गीय सुशीला अभय पति-श्री प्रमोद कुमार पुत्र-आकर्ष दिवयम शिक्षा-स्नातक, एलएलबी, Bachelor of Mass Communication & Journalism पेशा-पत्रकार ब्यूरो चीफ़ 'शार्प रिपोर्टर' (बिहार) पुस्तकें- सूरज के छिपने तक (प्रकाशित) मेरी अनुभूति (प्रकाशित) महाराजगंज के मालवीय उमाशंकर प्रसाद,स्मृति ग्रंथ (प्रकाशित) कुछ एहसास...तेरे मेरे दरम्यान (शीघ्र प्रकाशित) निवास-पटना मोबाइल-09471026423 मेल [email protected]

2 thoughts on “डायरी के पन्नों से

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    औरत कइ वश में ही सब सहेजना
    कहानी अच्छी लगी

Comments are closed.