गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कातिलों के चमन की हर दरो दीवार लिखता हूँ ।
यहाँ नफ़रत के साये में वतन से प्यार लिखता हूँ ।।

तू मुल्के मुख़बिरी अय्याशियों के नाम कर डाला ।
जो डायन कह गया माँ को उसे गद्दार लिखता हूँ।।

हों पैरोकार दहशतगर्द के जब भी सियासत में ।
मिटाकर हस्तियां उनकी नई सरकार लिखता हूँ ।।

उखड़ती ईट सड़को पर तरक्की देख ली सबने ।
तेरे जुमलों शिगूफों का बड़ा व्यापार लिखता हूँ ।।

गले जब तुम मिले उस से तो शक बदला यकीनों में ।
भ्रष्टता का नहीं तुझको मै पहरेदार लिखता हूँ ।।

जलाकर राख करते जो अमन का हौसला अक्सर ।
कलम से मैं उन्हीं के वास्ते अंगार लिखता हूँ ।।

किसी जन्नत की माफिक सैफई में जगमगाहट है।
अंधेरों से तड़पते गाँव का अधिकार लिखता हूँ ।।

रोटियां छीन ली तुमने जेहन दारों की थाली से ।
गुनाहे सिलसिला तेरा यहाँ सौ बार लिखता हूँ ।।

बगावत है यहाँ गर सच को लिख देना किताबों में ।
तो बागी हूँ मैं अपने जीत की तलवार लिखता हूँ ।।

— नवीन मणि त्रिपाठी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक [email protected]

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

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