गीतिका : औरत
चौखट भी…दर भी…दीवार भी औरत…
आते जाते ठोकरों की मार है औरत…
ज़िंदगी के हर रिश्तों का किरदार है निभाया…
फिर भी अपनों से हीं बेज़ार है औरत…
जिस मकां को घर बनाने में उम्र सारी गुज़र दी
उसी घर में बेगानों सा आज़ार है औरत…
चाहे तो मिट्टी को भी कुन्दन बना दे…
वक़्त आने पर चंडी की अवतार है औरत…
ता-उम्र जिसके साथ हमवार बनी रही…
आज उसी की वफ़ा की तलबगार है औरत…
रहने दो अश्क बनकर ना गिरने दो जमीं पर…
तू जहां खड़ा है उस की हकदार है औरत।
— रश्मि अभय