आर्य सृष्टि के आदि काल से आर्यावर्त्त-भारत के मूल निवासी हैं
ओ३म्
महर्षि दयानन्द चारों वेदों के सत्य अर्थों के जानने वाले सृष्टि के इतिहास में अपूर्व ऋषि व वेद-भाष्यकार थे। उन्होंने अपना सारा जीवन सत्य ज्ञान की खोज में लगाया। उन्होंने वेदों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उसे देश भर में निर्भिकता व साहस से साथ प्रचारित किया। वेद, वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों पर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि अनेक ग्रन्थों की रचना कर इनके द्वारा उन्होंने समूचे भूमण्डल में वेदों का प्रचार व प्रसार किया। अपने पूर्ण वैदिक ज्ञान व इतिहास आदि अनेक विषयों के उच्चस्तरीय ज्ञान के आधार पर उन्होंने जाना कि आर्य श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाले मनुष्यों का नाम है, इससे इतर किसी अन्य जन्मना जाति वालों का नाम नहीं है। श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न मनुष्य को आर्य कहा जाता रहा है तथा इतर मनुष्यों को दस्यु आदि नामों से पुकारा जाता है। सृष्टि के आरम्भ काल से लेकर महाभारत काल तक भारत में वेदों पर आधारित वर्ण व्यवस्था रही है जिसमें मनुष्यों को गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों में रखा गया था। ब्राह्मण ज्ञान प्रधान, क्षत्रिय शारीरिक बल प्रधान, वैश्य गोपालन-कृषि-व्यापार कार्यों में अभिज्ञ व संलग्न तथा अज्ञानी व निर्बुद्धि लोगों को शूद्र कहा जाता था। शूद्र कोई जन्मना जाति नहीं अपितु अल्प ज्ञानी मनुष्यों को कहा जाता था जो समाज के तीन इतर तीन वर्णो को उनके अध्ययन-अध्यापन, बाह्य व आन्तरिक सुरक्षा, वाणिज्य-कार्यों में सहयोग दिया करते थे। यह चारों वर्ण गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार परिवर्तनीय थे। संस्कृत साहित्य में इसके अनेक उदाहरण मिलते है। जिन्हें महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। अग्रेजों ने इंग्लैण्ड से आकर भारत की जनता को गुलाम बनाकर यहां राज्य किया। वह विदेशी थे और जानते थे कि यहां के स्थानीय लोग उन्हें विदेशी होने के कारण स्वीकार नहीं करेंगे और उन्हें कालान्तर में इंग्लैण्ड लौटना होगा। अतः उन्होंने अपने स्थायित्व के लिए आर्य–अनार्य का कल्पनाप्रसूत=मनघड़न्त झूठा विवाद उत्पन्न किया कि अंगेजों की ही भांति सृष्टि के आरम्भ काल से यहां रहने वाले इसके मूल निवासी आर्य भी विदेशी हैं। महर्षि दयानन्द से पूर्व व उनके समकालीन, अज्ञानी व स्वावर्थ की प्रवृत्ति वाले अंग्रेजों के प्रशंसक भारतीयों ने बिना विचार व प्रमाण के उनकी बातों को स्वीकार कर लिया अर्थात् उनसे कोई विवाद नहीं किया। विदेशी क्रूर शासकों के सामने जो स्थिति दास व गुलामों की होती है, न्यूनाधिक वही स्थिति हमारे तत्कालीन बुद्धिजीवियों की थी। महर्षि दयानन्द ने अंग्रेजी की इस कल्पनाप्रसूत मान्यता के मूल उद्देश्य को जानकर इसका प्रमाण पुरस्सर खण्डन किया और चुनौतीपूर्ण शब्दों में उद्घोष किया कि किसी संस्कृत वा इतिहास के प्रमाणित ग्रन्थ में नहीं लिखा है कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों को लड़कर, उन पर जय पाकर, उन्हें यहां से निकाल कर इस देश के राजा हुए। वह भारतीय व विदेशी विद्वानों से भी पूछते हैं कि जब भारत के हजारों व लाखों वर्ष पुराने संस्कृत के मनुस्मृति, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थों में यह नहीं लिखा कि आर्य लोग किसी अन्य देश व स्थान से भारत आये तो फिर विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? आज तक कोई देशी व विदेशी विद्वान महर्षि दयानन्द के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। यह दयानंद जी की दिग्विजय है।
सुप्रसिद्ध वैदिक सम्पत्ति ग्रन्थ के लेखक व वैदिक विद्वान पं. रघुनन्दन शर्मा लिखते हैं कि ‘‘(लोकमान्य बाल गंगाधर) तिलक महोदय के लिखे हुए ‘उत्तर–ध्रुव निवास’ ग्रन्थ का खण्डन करने के लिए बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने ‘मानवेर आदि जन्मभूमि’ और बाबू अविनाश चन्द्र दास एम0ए0 बी0एल0 ने ‘ऋग्वेदिक इंडिया’ और नारायण भवानराव पावगी ने ‘आर्यावर्तांतील आर्यांची जन्मभूमि’ ग्रन्थ बड़ी योग्यता से लिखे हैं। (यह) तीन ग्रन्थकार कहते हैं कि तिलक महोदय ने भूल की है। यहां हम तीनों ग्रन्थों से एक-एक वाक्य लिखकर दिखलाना चाहते हैं कि वे किस प्रकार लोकमान्य तिलक की पुस्तक का खण्डन करते हैं। ‘आर्यावर्तांतील आर्यांची जन्मभूमि’ में पावगी महोदय कहते हैं कि ‘तिलक ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि it is clear that this Soma juice extracted and purified at night during the Atiratra sacrifice, (in the Arctic) and Indra was the only deity to whom the libations were offered in order to help in his fight with the Asuras, who had taken shelter with the darkness of the night.
अर्थात् उत्तर-ध्रुव में अतिरात्र यज्ञ के समय रात्रि में सोमरस निकालकर साफ किया जाता था और असुरों का पराभव करने के लिए इन्द्र को समर्पित किया जाता था, परन्तु उत्तर- ध्रुव में तो सोमलता होती ही नहीं। वह तो हिमालय में होनेवाली वस्तु है, क्योंकि अनेक स्थानों पर लिखा है कि मुंजवान् पर्वत पर होती है। यह मुंजवान् पर्वत् हिमालय का ही भाग है, इसलिए उत्तर-ध्रुव निवास का सिद्धान्त सच्चा नहीं है।’ यह एक ऐसा प्रमाण है जिसने उस थ्योरी का खण्डन कर दिया है, जिसके द्वारा तिलक महोदय उत्तर-ध्रुव में आर्यों का निवास सिद्ध करते हैं। ऊपर के प्रमाण से तो यह परिणाम निकलता है कि आर्य वहां पैदा हुए, जहां सोमलता होती हो।
अविनाश बाबू अपने ‘ऋग्वेदिक इण्डिया’ में लिखते हैं कि ‘वेद उस समय बने जब सरस्वती नदी हिमालय से बहकर सीधी समुद्र को जाती थी। उस समय राजपूताने का मरुस्थल समुद्र हो रहा था।’ (A sea actually covered a very large portion of modern Rajputana. This Rik clearly indicates that at the time of its composition, the river Saraswati used to flow from the Hiamalya directly to the sea.–Rigvedic India, p.7) इस समय सरस्वती नदी का पता भी नहीं है। वह जब बहती थी उस समय इस ऋचा के कहनेवाले उस नदी को देखते थे। समुद्र कितने दिन तक रहा, सरस्वती उसमें बहकर गिरती थी, उसको कितना समय हुआ और समुद्र तथा सरस्वती को सूखे हुए कितने दिन हुए? यदि समुद्र और सरस्वती एक ही समय में सूखे हों तो अविनाश बाबू की राय में उक्त घटना को हुए कम-से-कम लाखों वर्ष हो गये। (If the disappearance of the Saraswati was synchronous with that of the sea, then the event must have taken place some tens of thousands of years ago, if not hundreds of thousands or millions. – Rigvedic India, p.7) अविनाश बाबू के कथनानुसार लाखों वर्ष पूर्व आर्य लोग उस जगह पर थे जहां सरस्वती नदी और राजपूताने का समुद्र लहरा रहा था। इस प्रकार अविनाश बाबू ने भी उत्तर-धु्रवोत्पत्ति के सिद्धान्त का खण्डन कर दिया और सिद्ध कर दिया कि आर्यलोग लाखों वर्ष पूर्व आर्यावत्र्त में ही रहते थे। (इससे न केवल तिलक जी अपितु अंग्रेजों की इस मान्यता का भी खण्डन हो रहा जो कहते हैं कि आर्य ईरान आदि किसी देश से आये थे।)
बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न कहते हैं कि ‘तिलक महोदय का मत संशोधन करने के लिए हम गत वर्ष उनके घर गये और उनके साथ पांच दिन तक इस विषय में बहस करते रहे। उन्होंने हमसे सरलतापूर्वक कह दिया कि हमने मूल वेद नहीं पढ़़े—हमने तो केवल साहब लोगों (अंग्रेज विद्वानों) के अनुवाद पढ़े हैं।’ इस एक ही वाक्य में उन्होंने यह कह डाला कि वेदों के द्वारा तिलक महोदय का निकाला हुआ यह सिद्धान्त कि आर्य लोग उत्तर-ध्रुव के निवासी हैं विश्वास योग्य नहीं है, क्योंकि जो आदमी जिस पुस्तक को समझ नहीं सकता वह उसके अन्दर की बात कैसे जान सकता है और कैसे उसके आधार पर अनुसंधान कर सकता है? इन तीन विद्वानों ने इतना ही नहीं लिखा किन्तु अपने पन्थों में पचास से दो सौ पृष्ठों तक का सारा स्थान लोकमान्य तिलक के सिद्धान्त के खण्डन में लगा दिया है।
वेदों में सोम किस वस्तु को कहा है और सरस्वती किस पहाड़ से निकलकर किस समुद्र में गिरती है, इसका वर्णन हम यहां नहीं करना चाहते। हम तो यहां केवल यही बतलाना चाहते हैं कि जिस रीति का अर्थ तिलक महोदय को प्रिय था उसी ढंग से अर्थ करनेवाले पाश्चात्य शिष्यगण उनको मिल गये, जिन्होंने सिद्ध कर दिया कि सोमलता उत्तर-ध्रुव में नहीं होती, अतः वेदों में उत्तर-धु्रव के सोम-याग का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि लाखों वर्ष पूर्व आर्य लोग राजपूताने के समुद्र में सरस्वती को गिरते हुए देखते थे। तात्पर्य यह कि लाखों वर्ष पूर्व आर्य लोग वहां थे जहां सोमलता हो, सरस्वती नदी हो, और राजपूताने का समुद्र हो। इन वर्णनों से दो बातें सामने आईं—एक तो यह कि वेद लाखों वर्ष के पुराने सिद्ध हुए, दूसरी यह कि आर्यों का उत्तर–ध्रुव में निवास सिद्ध न होकर भारतवर्ष में सिद्ध हुआ।
पिछले दिनों भारत की लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने आर्यों को बाहर से आया हुआ और खुद को भारत का मूल निवासी बताया। उनका यह कथन तथ्यों के विपरीत तथा पक्षपात पूर्ण है। आर्य और अन्य सभी आदिवासी व वनवासी सभी आर्यों के वंशज हैं और सभी भारत के मूल निवासी हैं। आर्य मान्यताओं के अनुसार तो संसार के सभी देशों को आर्यों के वंशजों ने ही प्राचीनकाल में वहां जाकर बसाया है। भारतीय संस्कृति का संसार के लोगों को एक कुटम्ब का अर्थात् ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहने का एक कारण यह भी है। इस विषय वैदिक विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने ‘‘आर्यो का आदि देश और उनकी सभ्यता” प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक की भूमिका व प्रस्तावना कांग्रेस के ही दो पुराने वरिष्ठ नेताओं श्री बलराम जाखड़, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष तथा कृष्णचन्द्र पन्त, पूर्व रक्षा मंत्री ने लिखी है। इस पुस्तक में अनेक प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से आर्यों को भारत का मूल निवासी सिद्ध किया गया है। कांग्रेस के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे को अपने वरिष्ठ नेताओं का सम्मान करना चाहिये और अपने इस असत्य भाषण को वापिस लेना चाहिये। हम पुनः कहना चाहते हैं कि आर्य भारत के प्राचीनतम मूल निवासी हैं। अन्य सभी भारतीय जातियों के पूर्वज भी आर्य थे और यह सब उन्हीं के वंशज हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
सुन्दर लेख। क्या वेद आर्य-द्रविड़ युद्ध का वर्णन करते है? इस लेख में भी इस विषय पर अनेक जानकारी दी गई हैं।
http://vedictruth.blogspot.in/2015/12/blog-post.html
नमस्ते एवं बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद लेख पसंद करने और प्रतिक्रिया देने के लिए। आप जय विजय रचनाकार सम्मान योजना, २०१५ में चयनित हुवें हैं, इसके लिए आपको हार्दिक बधाई। सादर।
मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा . आप ने जो बातें आरिया लोगों के बारे में लिखी हैं ,वोह तो इत्हास्कार ही जाने लेकिन हम तो यही पड़ते रहे थे कि आरिया लोग बाहर से आये थे और वोह सभिया थे, उन की लड़ाई भारती लोगों से हुई जो जंगलों में रहते थे और वोह उन को जीतते चले गए . अंग्रेजों ने हिस्तौरीकल फैक्ट्स जान बूझ कर ऐसे लिखे यह तो मुझे पता नहीं लेकिन एक बात है कि अंग्रेजों का राज होने के कारण इन लोगों के पास रीसोर्सज़ बहुत थे जिस से इन्होने पुराने खंडरों को उखाड़ कर इतहास को लोगों के सामने पेश भी किया . मुसलमानों ने भारती सभियता को बर्बाद करने की पूरी कोशिश की थी लेकिन अंग्रेजों ने मोहिन्जोदारो और हरप्पा की सभियता को भी फिर से उजागर कर दिया . मैं अंग्रेजों की वकालत नहीं करता लेकिन एक बात बहुत दफा मैं सोचता हूँ कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत का ज़िआदा हिस्सा मुसलमानों के कब्ज़े में ही था और भारत कई भागों में बंटा हुआ था लेकिन अगर अंग्रेजों ने भारत को लूटा तो अखंड भारत भी दे गए .सारा भारत एक होने के कारण अंग्रेजों ने बहुत लाभ उठाया लेकिन इन के भारत छोड़ने पर भारत एक बहुत बड़ा बन गिया था ,यह तो बदकिस्मती है कि देश का बटवारा हो गिया वर्ना यह देश इतना बड़ा होता कि चीन हमारी तरफ आँख उठा कर नहीं देख सकता था .यह ऐसे ही हुआ जैसे इंग्लैड पर रोमन का राज था और जब यह राज टूटा तो इंग्लैण्ड एक हो गिया था .इंग्लैण्ड के लोग जब रोमन चले गए तो कहते थे कि रोमन ना जाते तो अच्छा था और यह बिलकुल उसी तरह था जैसे बचपन में जब इंडिया का बटवारा हुआ था तो लोग कहा करते थे ,” इस राज से तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था ” ,किओंकि उस वक्त इंडिया के हालात बहुत बुरे थे . मनमोहन जी , आप की हिंदी मुझे कुछ मुश्किल लगने की वजह से बहुत कुछ समझ नहीं पाता हूँ ,इस लिए खिमा चाहता हूँ .मैंने सिर्फ बेसिक हिंदी ही पड़ी है और मुश्किल शब्द समझ नहीं आते .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर हमेशा हमेशा के लिए शासन करने के लिए मनघडंत इतिहास लिखवाया। मेरा कल का लेख भी कुछ कुछ इसी विषय पर है। महर्षि दयानंद ने अंग्रेजों के राज्य में ही बहुत सी इतिहास विषयक बातों का प्रमाण माँगा परन्तु आज तक भी वह दे नहीं सके। दयानंदजी ने जो प्रमाण दिए उनकी अनदेखी की गई। आज की सरकारें भी धर्मनिरपेक्षता की नीति के कारण बहुत सी सच्ची बातों को स्वीकार नहीं करतीं। आज तो अनेक इतिहासकार वही कह रहें हैं कि जो महर्षि दयानंद जी ने कहा था। अंग्रेज भारत को आजाद नहीं करना चाहते थे परन्तु उनकी मजबूरी थी। आजादी के लिए हमारे देश के अनेक वीर युवकों ने बलिदान दिए हैं। हमें उन सभी पर गर्व हैं। यह हमारा नसीब था कि अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए भारत के छोटे छोटे राज्यों को अपने राज्य में मिलाया। यदि उन्हें यह पता होता कि एक दिन देश छोड़ कर जाना होगा तो शायद उनकी नीति कुछ और हो सकती थी। परमात्मा का यह नियम है कि मनुष्य को भविष्य का ज्ञान नहीं होता, वह कुछ कुछ अनुमान ही लगा सकता है. यह अनुमान कभी सही और कभी कभी गलत सिद्ध होता है। हमारे देश को आजादी के बाद शासन करने वाले में, अपवादों को छोड़कर, न तो योग्य नेता मिले और न हि देशभक्त, स्वार्थहीन और अनुशासित नागरिक। इनमे भी बहुत से अपवाद हैं। इसलिए देश की आज की जैसी हालत हुई है। मुझे लगता है कि जब तक देश में सत्य मान्यताओं व सिद्धांतों के प्रति दृढ़ता उत्पन्न नहीं होगी तब तक देश की वास्तविक उन्नति नहीं हो सकती और न ही सामजिक और धार्मिक एकता स्थापित हो सकती है। पाकिस्तान बनने के बाद भी देश में अशांति है, इसके लिए देश के दवारा विगत ६८ वर्षों में अपनाई गई नीतियों की विफलता ही लगती है। यह विषय गंभीर और जटिल हैं. इन पर सबकी राय अलग अलग हो सकती है। आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। सादर .
आप जय विजय रचनाकार सम्मान योजना, २०१५ में चयनित हुवें हैं, इसके लिए आपको हार्दिक बधाई। सादर।
धन्यवाद मनमोहन भाई .दरअसल मैं तो कोई लेखक नहीं हूँ , यह सिर्फ बिदेश में रहने के कारण ही मिला है वरना जयविजय में बहुत बड़े बड़े आप जैसे साहित्कार हैं ,मैं तो आप सब के सामने तुष भी नहीं हूँ .
मैं लेखक हूँ या नहीं, मुझे पता नहीं। मुझे जो अच्छा वा उचित लगता है, उसे लिख देता हूँ। आप के शब्दों में बहुत आकर्षण, सरलता एवं मिठास हैं, उन्हें पढ़कर जो आनंद आता है वह कहा नहीं जा सकता। आप मेरे बड़े, आदरणीय एवं पूज्य हैं। जयविजय का यह सम्मान आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सर्वथा अनुरूप है। हार्दिक धन्यवाद।