मुक्तक/दोहा

ऐ मेरे चंचल मेरे

ऐ मेरे चंचल मन बहुत देखा है ये संसार
बनके पंछी उड़ा है गगन में पंख पसार
सूरज-चाँद-तारे गगन में रोज देखते हैं
आज देखने चलो क्या है गगन के पार
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ऐ दिल जगा उमंग जाना है सपनों के गाँव
गगन को छूना है तुम्हें रखकर जमीं पर पाँव
तूफानों से डरकर तू साहिल भूल न जाना
जीवन सफर में आते ही रहते हैं धूप-छाँव
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नहीं मिटा सकता कोई किसी का अभिलाषा
कर्मवीर पूरा करके रहते हैं मन की आशा
कुछ पल के लिए भले कोई रवि को ढँक दे
एक किरण आते ही छँट जाता सब कुहासा

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।