आर्य जाति नहीं गुण सूचक शब्द है।
ओ३म्
सृष्टि के आदि काल व उसके बाद के समय में आर्य, दास तथा दस्यु आदि कोई मुनष्यों की जातियां नहीं थीं, और न ही इनके बीच हुए किसी युद्ध व युद्धों का वर्णन वेदों में है। वेद में आर्य आदि शब्द गुणवाचक हैं, जातिवाचक नहीं। जाति तो संसार के सभी मनुष्यों की एक है और इस मनुष्य जाति की स्त्री व पुरूष दो उपजातियां कह सकते हैं। जो पाश्चात्य लेखक ऋग्वेद में आदिवासियों को चपटी नाक और काली त्वचा वाले बताते हैं, वह असत्य, निराधार व अप्रमाणिक है। वह यह भी कहते हैं कि आर्य लोग आदिवासियों की बस्तियों (पुरों) का विध्वंस करते थे, और कभी-कभी आर्यों का आर्यों के साथ भी युद्ध हो जाया करता था। उनकी ये सारी बातें वेद और सत्यान्वेषण के विरुद्ध होने से काल्पनिक एवं प्रमाणहीन हैं।
सृष्टि का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं। वेद वह ग्रन्थ हैं जिनमें आदि सृष्टि में ईश्वर से चार ऋषियों को प्राप्त ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद रूपी ज्ञान, जिनके विषय ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान हैं, को लिपिबद्ध किया गया है। यह पुस्तकें व ग्रन्थ मन्त्र संहिताएं कहलाती हैं। ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऋग्वेद का 1/51/8 मन्त्र प्रस्तुत है जिसमें आर्य और दस्यु को जातिसूचक नहीं अपितु गुण-कर्म-स्वभाव का सूचक बताया गया है। इससे सभी विदेशी और देशी अल्पज्ञ विद्वानों की आर्यों विषयक भ्रान्तियों व मिथ्या मान्यताओं का खण्डन होता है।
मन्त्रः वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्ध्या शासदव्रतान्।
शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन।।
इस मन्त्र का अर्थ हैः इस संसार में आर्य=श्रेष्ठ और दस्यु=विनाशकारी इन दो प्रकार के स्वभाव वाले स्त्री व पुरुष हैं। हे परमैश्वर्यवान् इन्द्र (परमात्मा) ! आप बर्हिष्मान् अर्थात् संसार के परोपकार रूप यज्ञ में रत आर्यों की सहायता के लिए (परहित विरोधी, स्वार्थ साधक व हिंसक) दस्युओं का नाश करें। हमें शक्ति दें कि हम अव्रती (व्रतहीन, सामाजिक नियम व वेदविहित ईश्वराज्ञा भंग करने वाले) अर्थात् अनार्य दुष्ट पुरुषों पर शासन करें। वह कदापि हम पर शासन न करें। हे इन्द्र (ऐश्वर्यो के स्वामी ईश्वर) ! हम सदा ही तुम्हारी स्तुतियों की कामना करते हैं। आप आर्य सद्-विचारों के प्रेरक बनें, जिससे हम अनार्यत्व को त्याग कर आर्य बनें।
मन्त्र में ‘‘आर्य” शब्द प्रयोग परोपकार में संलग्न आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्योचित आचरण वाले लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। किसी भी समुदाय में अच्छे व बुरे तथा श्रेष्ठ और कदाचार करने वाले लोग हुआ ही करते हैं। मन्त्र में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हम आर्य विचारों के प्रेरक बनें और अनार्यत्व अर्थात् बुराईयों व दुगुर्णों को त्याग दें। अतः इस बात में कोई संशय नहीं है कि आर्य जातिसूचक शब्द नहीं अपितु मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों की प्रधानता का सूचक है।
इसी क्रम में हम भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जन्मदाता मैकाले और एफ0 मैक्समूलर की भारतीय वैदिक धर्म और संस्कृति को दूषित करने की योजना को क्रियान्वित करने पर हुई बैठक का विवरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। सन् 1839 में जब मैकाले भारत से इंग्लैण्ड आया तब वह एक संस्कृत के विद्वान की खोज में था। वह ऐसा विद्वान् चाहता था कि जो वेद के सम्बन्ध में योग्यता रखता हो। एच0एच0 विलसन और वारोन वुनसन के द्वारा मैकाले को पता चला कि जर्मन देशोत्पन्न संस्कृत के विद्वान एफ0 मैक्समूलर इस काम के लिए उपयुक्त हैं। दिसम्बर, 1954 में मैक्समूलर और मैकाले की इंग्लैण्ड में भेंट हुई। उस समय मैकाले 55 वर्ष का अनुभवी राजनीतिज्ञ बन चुका था और मैक्समूलर 32 वर्ष का नवयुवक था। मैक्समूलर आर्थिक दृष्टि से कृपण था और उसे किसी ऐसे काम की अपेक्षा थी जिससे वह अच्छा खासा धन कमा सके। मैकाले और मैक्सूमूलर के बीच कई घण्टों तक बातचीन हुई। इस बैठक में मैकाले ने मैक्सूलर को कहा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी लाखों रुपये व्यय करने को तैयार है यदि आप हिन्दुओं के आदि धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद का अंग्रेजी में अनुवाद करें और इस ढंग से व्याख्या करें कि जिससे वेदों की विचारधारा के विद्वानों व अनुयायियों को धर्म-भ्रष्ट किया जा सके। तुम इस काम में अंग्रेजी सरकार को सहयोग दो और हिन्दुओं के हृदयों में वेद के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करो जिससे अंगेजी राज्य की भारत में नींव सुदृढ़ हो तथा हिन्दुओं को बिना किसी यत्न किये सरलता से ईसाई बनाया जा सके। यह कहना न होगा कि इस काम को करने के लिए मैक्समूलर को प्रभूत धन का प्रस्ताव व लालच दिया गया था। किसी भी धनहीन विद्वान की सबसे बड़ी कमजोरी धन ही होती है। मैक्समूलर ने इस प्रस्ताव को चाहे व अनचाहें दोनों ही रूपों में स्वीकार कर लिया। इसका प्रमाण उनका अपनी पत्नी को सन् 1866 में तथा 16 दिसम्बर 1868 को तत्कालीन भारत के मन्त्री श्री ड्यूक आफ आर्गायल को लिखे पत्र हैं।
अंग्रेजों ने अपना राज्य स्थाई वा चिरकालीन करने के लिये जो षडयन्त्र किया था उसके शिकार भारत के अधिकांश बुद्धिजीवी हुए। यदि वह ऐसा न करते तो अंगे्रजों से मिलने वाली सुविधाओं से उन्हें हाथ धोना पड़ सकता था। वर्तमान में भी अज्ञानता, स्वार्थवश व आत्म गौरव की न्यूवता के कारण हम इसे ढो रहे हैं। आज भी देश के बच्चों को इस बारे में मिथ्या पाठ पढ़ाये जाते हैं। भारत की लोकसभा तक में कांगे्रस दल के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़से आर्यों को बाहर से आया हुआ कह देते हैं और किन्हीं कारणों से सब मौन साधे रहते हैं। बुद्धिमान जो भी बात कहते हैं वह उसे सप्रमाण कहते हैं। आज तक आर्यों का बाहर से भारत आना व आर्य का एक जाति होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। फिर भी बुद्धिजीवी कहे जाने वाले कुछ लोग इसे ढोये जा रहे हैं। आर्यों को भारत से बाहर से आया हुआ कहना व मानना पूर्णतया असत्य कथन व विवके व ज्ञानशून्य मान्यता है। इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिये। लोकसभा में भी इसका उल्लेख करने वालों से प्रमाण मांगे जाने चाहिये अन्यथा वह अपना बयान वापिस लें, इस पर बल दिया जाना चाहिये।
हम पुनः बलपूर्वक कहना चाहते हैं कि ‘‘आर्य” गुणों का सूचक शब्द है, जाति सूचक शब्द नहीं है। श्रेष्ठ गुणों से युक्त वेदों को मानने वाले लोगों को आर्य कहा गया है। यह लोग भारत के मूल निवासी थे। सृष्टि के आरम्भ में इन आर्यों ने ही इस जम्बू दीप स्थित आर्यावत्र्त को वैदिक ज्ञान-विज्ञान से युक्त श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले आर्यों ने ही बसाया था। यह वह समय था जब संसार में तिब्बत के अतिरिक्त कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था, संसार की सारी भूमि मनुष्यों से रहित खाली पड़ी थी। इससे पूर्व भारत में वनवासी, आदिवासी वा द्राविड़ नाम की कोई जाति निवास नहीं करती थी, इसका प्रश्न ही नहीं था क्योंकि यह सृष्टि का आदि काल था। आदिवासी, वनवासी व द्राविड़ आदि शब्दों का रूढि़वादी प्रयोग अर्वाचीन है प्राचीन नहीं। ढूढने पर इनमें अनेक जन्मना जातिसूचक शब्द मिल जायेंगे। जाति सूचक इन शब्दों का प्रचलन सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष तथा महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के भी कई सौ या हजारों वर्ष बाद आरम्भ हुआ। हम आशा करते हैं कि विवकेशील पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हमारा यह भी निवेदन है कि यदि किसी के पास आर्यों के बाहर से आने का कोई पुष्ट प्रमाण हो तो वह प्रस्तुत कर सकते हैं। विदेशियों ने जो कुछ लिखा व कहा, वह अपने स्वार्थ के कारण किया। भारत के किसी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ वेद, मनुस्मृति, चार ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण, महाभारत, दर्शन ग्रन्थों व उपनिषदों में कहीं नहीं लिखा की आर्य बाहर से आये थे, उन्होंने यहां की किसी प्राचीन जाति पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की, उन्हें दास बनाया आदि। आर्य कोई जाति नहीं अपितु यह शब्द श्रेष्ठ गुणों का सूचक है। अतः विदेशियों का इस बारे में कोई भी प्रमाणहीन कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ नाम से अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो सभी वेदों पर आधारित होने से सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य आर्य-श्रेष्ठ-सिद्धान्त हैं। वह लिखते हैं कि ‘जो मतमतान्तर के परस्परर विरुद्ध झगड़े हैं, उन को मैं प्रसन्न नहीं करता क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट सर्व सत्य का प्रचार कर सब को ऐक्यमत में (स्थिर) करा द्वेष छुड़ा परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ पहुंचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह (ईश्वरप्रदत्त वेदा का ज्ञान) सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल (संसार व विश्व) में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे जिस से सब लोग सहज से धर्म्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन (उद्देश्य व इच्छा) है।’ आर्यावर्त्त देश का उल्लेख कर महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि इस भूमि का नाम आर्यावर्त्त इसलिये है कि इस में आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उस को ‘आर्यावर्त्त’ कहते हैं और जो इस आर्यावर्त्त देश में सदा से रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं। महर्षि दयानन्द के विश्व के लिए कल्याणकारी इन विचारों पर विचार करना और इन्हें मानना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है।
-मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन जी ,लेख अच्छा लगा .आप का कहना कि आर्य गुणवाचक शब्द है ,समझ आ गई . एक जगह आप ने मैक्समूलर और मैकॉले की मीटिंग दसंबर १९५४ में इंग्लैण्ड में हुई ,यह १८५४ होना चाहिए था .एक बात और अगर आप मैक्समूलर की पत्नी के ख़त भी लिख देते तो बहुर अच्छा होता .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मैकाले एवं मैक्समूलर जी की बैठक सन् 1854 में ही हुई थी। टाइप करते समय यह गल्ती हो गई। असुविधा के लिए मुझे खेद है। श्री मैक्समूलर ने सन् 1866 में अपनी पत्नी को जो पत्र लिखा, वह यह था। ‘I hope I shall finish the work and I feel convinced, though I shall not live to see it, yet this addition of mine and the translation of the Veda will here after tell to great extent on the fate of India and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.’ Jh मैक्समूलर ने 26 दिसम्बर 1868 के पत्र में भारत के मंत्री श्री ड्यूक आफ आर्गायल को लिखा था – ’The ancient religion of India is doomed, If Christianity does not step in, whose fault will it be?’ नमस्ते, आभार व धन्यवाद।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मैकाले एवं मैक्समूलर जी की बैठक सन् 1854 में ही हुई थी। टाइप करते समय यह गल्ती हो गई। असुविधा के लिए मुझे खेद है। श्री मैक्समूलर ने सन् 1866 में अपनी पत्नी को जो पत्र लिखा, वह यह था। ‘I hope I shall finish the work and I feel convinced, though I shall not live to see it, yet this addition of mine and the translation of the Veda will here after tell to great extent on the fate of India and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.’ Jh मैक्समूलर ने 26 दिसम्बर 1868 के पत्र में भारत के मंत्री श्री ड्यूक आफ आर्गायल को लिखा था – ’The ancient religion of India is doomed, If Christianity does not step in, whose fault will it be?’ नमस्ते, आभार व धन्यवाद।
धन्यवाद मनमोहन भाई ,इस से साफ़ जाहर हो गिया कि यह अंग्रेजों की भारत में क्रिचिऐनिति का परसार करने के लिए था ,आप का कहा सच है कि कोई बाहर से नहीं आया .आप की खोज की दाद देता हूँ और देश वासिओं से बनती करूँगा कि यह सच जानने की कोशिश करें .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। महर्षि दयानंद जी ने आर्य समाज का एक नियम बनाया है कि सत्य का ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। इसी नियम को सभी लोग स्वीकार करते हैं परन्तु इसको मानते बहुत ही कम लोग हैं। आर्यसमाज में भी हमने बहुत से लोगो को इस नियम का स्पष्ट उलंघन करते हुवे देखा है। सादर।