लघुकथा- गुरु
लघुकथा- गुरु
“जो गुरु बच्चे को बेरहमी से मारे वह गुरु नफरत के लायक है,” कहते ही रवि ने उस की मिमिक्री करना शुरू कर दी मगर महेश हंसने की जगह उसे इशारा कर के चुप होने की कह रहा था..
रवि ने गर्दन घुमाई तो वही गुरूजी खड़े थे. रवि की रूह कांप उठी, “ अब जरा अमिताभ की मिमिक्री कर के बताओ.” यह सुनते ही रवि हकला उठा, “ जी सर !”
“ मैं ने कहा- अब अमिताभ, किशोर, दिलीप की नकल उतार कर बताओ !” वे चीखे तो सभी साथी भाग गए.
रवि अकेला बचा. वह घबरा गया. मगर मार के आगे भूत भी भाग जाते है. नकल उतारनी पड़ी. यही से इस पेशे की शुरुवात हुई.
इस नकल को देख कर दर्शकों ने जम कर तालियाँ बजा दी और रवि वर्तमान में लौट आया. उस की निगाहे मंच पर रखी गुरूजी की तस्वीर पर अटक गई. जो अत्यधिक लाडप्यार से बिगड़े, बेरोजगारी व ड्रग्स की भेट चढ़े अपने बड़े बेटे को बचा नहीं पाए थे .
“ मैं इस सम्मान से अभिभूत हूँ मगर मेरा व गुरूजी का असली सम्मान तब होगा जब विद्यालय में शिक्षकों की जगह ऐसे गुरुजनों की भरमार होगी, जो कच्ची मिट्टी को सही आकार दे सके.” कहते हुए रवि की आँखों से गुरूजी के सम्मान में श्रृद्धाबूंद के सुमन टपक पड़े.
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ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”