नवगीत
गुस्ताख दिल
मैने अपने दिल को बताया
कोने है अपना कोने पराया
आँखें चार करके
इशक न करना
और किसी को
अपना न बनाना
गुस्ताख दिल को मिली सजा
दिल लगाना थीं वजह
औरों की क्या कहे
खुद की नही है खबर
तनहा ही चल पड़ा है
भटकता है दरबदर
धीमी धीमी सी चाल है
जाने कैसा हाल है
पहले भी तनहा था
और आज भी तनहा है
गुस्ताख दिल को मिली सजा
दिल लगाना थी वजह
रूक रूक कर रोता है
धीमे धीमे कहता है
मेरी क्या थीं खता
कोई दे मुझे बता
इशक न करूँगा अब
नहीं मिलती इसमें वफा
इशक की इन गलियों में
मिलते हैं बेवफा
गुस्ताख दिल को मिली सजा
दिल लगाना थी वजह
— विकाश सक्सेना
विकाश जी ,कहीं ठोकर तो नहीं खाई ! आप की कविता का मज़ा आ गिया ,बहुत ही अच्छी लगी ,आगे भी इंतज़ार रहेगा .