साहित्यकारों के सम्मान लौटाने की होड़ मची हुई थी | थोड़ा हो हल्ला हुआ | एक दूजे को गलत साबित करने के कई कारण गिनाये गये पर जनता मूक बनी रही | उनकी सम्मान वापिसी को मीडिया वाले भी फुटेज देना बंद कर दिए थे | सारे साहित्यकार छींटाकसी और उपेक्षा से तिलमिला उठे | बस एक कौने में छोटी सी खबर ‘फलां ने लौटाया साहित्य सम्मान’ होती | खबर पढ़ कुकरेजा साहब ने कहा था “बात बनती दिख ना रही हैं मुकेश बाबु” |
फिर क्या था कई सम्मानित साहित्यकार ने नामी-गिरामी हस्तियों से मिल एक नया पैतरा खेला | अखबार टीवी की सुर्खियों में खबर आ रही थी, “साहित्यकारों के साथ अब फ़िल्मी कलाकार भी सम्मान लौटाने की दौड़ में शामिल “| सम्मान लौटाने को लेकर एक नयी रणनीति का आगाज हो गया था |
मुकेश बाबू बोले, “अब बात बनी न कुकरेजा साहब |”
“हा मुकेश बाबु, हफ्तों की मेहनत रंग दिखा रही अब|” हर गली मुहल्ले में अपने चहेते कलाकार के पक्ष में भीड़, भिड़ने को तैयार थी | चाय,परचून,शराब यहाँ तक की ‘अस्पताल’ की दुकानों में खबर गर्म थी | बच्चे-बच्चे को मालूम था की सम्मान लौटाया जा रहा | वो भी फ़िल्मी हस्तियों के कारण बड़ो के सुर में सुर मिलाने लगे थे | कुकरेजा और मुकेश बाबू गर्मागर्म बहस का मजा लेते हुय फुसफुसा उठे “क्यों ? पासे सही फेंके गये न अब” |
रज्जू काका के चाय की ठेल पर एक नवजवान इस कदम को सही ठहरा दलील पर दलील दे रहा था | दलील सुन नरसंहार में अपने दो जवान बेटे को खोने का जख्म हरा हो रहा था| एकाएक रज्जू काका का नासूर फूट पड़ा, वो रुंधे गले से बोल उठे, ” वो सब तो जानवर थे जो २०१५ से पहले ही कई बार बर्बाद हुए | काश आज के समय में बर्बाद हुए होते तो कम से कम इंसानों में तो गिने जाते |” सविता मिश्रा