डी.एम. मिश्र की कविताओं में “संघर्षरत आम आदमी की व्यथा”
सुल्तानपुर(उ.प्र.) के कवियों के कवि रामनरेश त्रिपाठी, त्रिलोचन, मान बहादुर सिंह की कविताओं की कड़ी को आगे ले जाने वाले सुविख्यात और बहुचर्चित आधुनिक युग के कवि डॉ डी. एम. मिश्र ‘यह भी एक रास्ता है’ एक काव्य संग्रह है । मिश्र जी का व्यक्तित्व उनकी कविताओं से देखा जा सकता है । कथाकार शिवमुर्ती कहते हैं कि जो गाँव के संदर्भ में जो सरोकार मेरी कहानियों का है वही इनकी कविताओं का भी । इसीलिए इनमें कवितओं ने मुझे प्रभावित किया । इनके गेयता, सरोकार और कंटेंट तीनों हैं, जो मुश्किल से किसी के पास एक होता है । मिश्र जी अपनी कविताओं में सामाजिक यथार्थ को बखूबी सामने लाते हैं । मिश्र जी ने कभी भी वास्तविकता से आँखें नहीं फेरी है, वे खुली आँखों से समाज में घटित होने वाली एक-एक छोटे-से-छोटे मुद्दों को अपनी कविताओं का केंद्र बिंदु बनाते हैं । ऐसे रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने के बराबर होता है । कवि मिश्र जी कवि-सम्मेलनों और मुशायरों की भी रौनक हैं । जिन भाग्यशाली लोगों को उनकी जुबान से कविताएँ सुनने का सुअवसर मिलता हो, उनको कविताओं का अर्थ और उसका उद्देश्य तलाशने की कोई आवश्यकता भी नहीं होती है । वह खुद-ब-खुद स्पष्ट होकर सामने आ जाती है । अभी तक इनके आठ कविता संग्रह प्रकाशित हुए है, आदमी की मुहर, लहरों के हस्ताक्षर, टेम्पो वाला छोरा, इज्जतपुरम्, मंगरु का नज़ला, उजाले का सफर, यह भी एक रास्ता है, और रोशनी का कारवॉ हैं । यह अपनी कविताओं में आम आदमी के जीवन संघर्ष की व्यथा को सामने लाते हैं और वही व्यथा को अपनी कविताओं का विषय वस्तु बनाते हैं इस संग्रह में समाज में व्याप्त विसंगातियों,असमानताओं,घुटन,ऊब,खीझ,त्रास्दी,संत्रास के तंतुओं से बुना है और ज्यादातर कविताओं में समय के सवालों के साथ जबरदस्त मुठभेड़ करते हुए भी नज़र आते हैं । मिश्र जी अपनी कविताओं के साथ कोई आडम्बर नहीं पालते, न ही कोई घोल-मटोल खड़ा करते हैं । वे अपनी कविताओं में समाज की व्यथा को सामने लाते हैं चाहे वह प्रधान की दलान हो या गरीब की झोपड़ी । मिश्र जी एक जुझारु कवि है जिनको समस्याओं से लड़ना भली-भांति आता हैं । इनकी भाषा एकदम सपाट और सरल है और इनकी दृष्टि जनोन्मुखी हैं । या कहा जा सकता है कि सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हैं जिससे पाठक को आसानी से समझ में आ जाती है ।
मिश्र जी ने अपनी कविताओ में समाज की उस तबके को सामने लाते हैं जिसमें परिवार के बुजूर्गों की समस्यओं की दास्तां है जिसकी औलादें अपने बुढ़े माँ-बाप को अनाथ छोड़कर अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेते है और साथ में उनको बेसहारा कर देते हैं कृत्रीमता कविता में उन बुजूर्गों के मन की बात को सामने “जानवरों की दुनिया/ हमसे अच्छी हैं / वह प्यार करते हैं / कसमें नहीं खाते/ औलादें पैदा करके/ उन्हें बड़ा करते हैं/ उम्मीदें नहीं पलते”
मिश्र जी ने समाज को बाखूबी से देखा,परखा और समझा है वे समाज के एक – एक तबके को सामने लाते है । वे सभी मजदूरों, दलितों, किसानों आदि की जिंदगी की अंतरात्मा में झाक कर देखते हैं । जब किसान की जमीन को पूंजीवादी व्यवस्था से इनकी अन्न देने वाली माता की बात आती है तो वे इस राजनीति व्यवस्था के आगे मन मस्तक हो जाने पर मजबूर है । बड़ी – बड़ी कम्पनियों की वजह से इनकी जमीन बंजर हो जाती है । मिश्र जी ने अपनी अनुगूँज कविता के द्वारा इस समस्या को सामने लाते हैं । वे कहते हैं कि जो लोग एक मुठ्ठी फायदे के लिए पूरी की पूरी धरती को बंजर बनाने पर आमादा रहते है । उनको ये अहसास होना चाहिए कि जिस धरती को तुम लोग बंजर बनाना चाहते हो । उसी जमीन से ही अन्न पैदा होता है । एक किसान या मजदूर की स्थिति ऐसी है जब खाने के लिए अन्न की किल्लत होती है । उस पर बच्चे के जिद करने पर खिलौने वे जब भी लाते हैं इस कविता में उस स्थिति को मिश्र जी ने सामने लाया है ।
“बाप बच्चे की ज़िद पर/ खिलौने लाता है तो/पेट की रोटियाँ काटकर” ।
‘गरीब दास’ नामक कविता में कवि ने पूंजीवादी व्यवस्था और विदेशी कम्पनियों के विनिवेश के लिए भारतीय समाज में व्याप्त नयी सभ्यता में शोषित वर्ग के मजदूर को दस बिस्सा खेत से अच्छा, दस-बाई-दस पक्के – पक्के मकान का स्वप्न दिखाकर उनके छान – छप्पर को उखाड़ के फेखने की बात भी करते हैं और गिरमिटिया मजदूर के श्रम से अपनी रोटियाँ सेकते हैं इनकी कविताओं में इस व्यथा को इस प्रकार से देखा जाता है ।
“गरीबदास गरीबी तेरी/ ऊँचे दाम पे/बिकने वाली/कथरी-गुदरी उठने वाली/ आर्थिक- सुधार के अंतर्गत/जो खाल/तेरी बेकार पड़ी/तंग हाल बीमार पड़ी/भूसा-वूसा नहीं/अबे,अब उसमें/डालर भरा जायेगा” ।
कवि ने राजनेताओं को एक कसाई से तुलना करते हुए कहता है कि जिस तरह अपने फायदे के लिए आम जनता की ताकत से सत्ता हथिया लेते हैं सत्ता की ताकत अंधा बना देती है, और अंधेरे में भटक कर आम आदमी का खून चूसते है जिस तरह एक कसाई के लिए सिर्फ बकरा दिखाई देता है उसी तरह इन नेताओं की दृष्टि में आम जनता बकरे हैं जो कवि ने इसको बखूबी से कविता में उतारा है “कसाई के लिए/आम आदमी/बकरे होते है” ।
श्रमशील जनता के द्वंद्वों-संघर्षों और उनकी अनुभूतियों के लय में कविता की प्रवाह चलती रहती हैं । जहाँ-जहाँ श्रम दिखाई देता है वहीं पर जीवन का सौंदर्य देखने को भी मिलता है । मैं परधान’ नामक कविता में कवि ने यह दिखाया है । जब परधान को परधानी मिल जाती है, तो आम जनता के साथ कैसा व्यवहार करते है इस कविता से आसानी से देखने को मिलती है ।
“तेरी चमड़ी/मेरा जूता/ तेरा भेजा/ मेरा कीमा/ पूछा अब भी/ मेरी सीमा/ मुझसे अधिक कौन सयान/ तू चिरकुट मैं परधान”
छल, कपट, धोखा, छल-बल से अनपढ़ गुंडे जैसे राजनेता सिंहासन को अर्जित करके नियम कानून को ताख पर रखकर गली – गली दुश्मन खड़े करते रहते हैं । यह देखकर जनता अपना माथा पीटती रहती है और कहती कि बोलो-बोलो ज़िंदाबाद ।
“साँच गली कूचे मैं बैठा/ माथा पीट रहा/ झूठ हमारा राजा बनकर/ दिल्ली पहुँच गया/ लँगड़ै बनिगै गगन बिहारी/ बोलो-बोलो ज़िंदबाद” ।
ऐसे नेताओं को हमीं लोग दारु और नोट के बदले वोट देते हैं । जो जितना पैसा देता है उसकी उतनी बड़ी जीत होती है चाहे ग्राम का मुखिया हो या दिल्ली का पी.एम. । ऐसे लोग ही लोकतंत्र के न्याय की गाड़ी इन गदहे खिचते है और जनता बोलती है बोलो-बोलो ज़िंदाबाद । “आधी जनता बड़ी सयानी/ जब तक दारु नोट नहीं/ तब तक कोई वोट नहीं/जिसकी जितनी बड़ी खरीद/उसकी उतने मतों से जीत/ परधानी से पी.एम.तक/ गाँव से लेकर दिल्ली तक/ महिला लोकतंत्र की न्यारी/ गदहे खींचे अक़्ल की गाड़ी/ बोलो-बोलो ज़िंदाबाद”
‘चलो राम समुझ’ कविता में शोषित अपने हक के लिए जब पूंजीपतियों के यहाँ जा कर फरियाद करता है तो उसके जवाब में शोषक वर्ग के लोग उनको यह धौस दिखाकर कहते है कि
“इस कमरे की/ दीवारें पक्की है/ इनसे कितना सिर टकराओ/ चिल्लाओ/ ये बोलेंगी नहीं/ उत्तर भी नहीं देंगी/ बस प्रतिध्वनि/ लौट आयेगी” ।
मिश्र जी ने समाज में होने वाले मायाजाल को भली-भांति से देखा और समझा है । समाज में सत्य और अहिंसा भी, राम–कृष्ण भगवान, जहाँ पवित्रता, वहाँ पाप भी रंग बदलकर बाज़ार में आकर सब एक सामान जैसी मुर्ति की तरह अपने-अपने दाम में बिक रही हैं ।‘मायाजाल’नामक कविता में कितने अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है । और कहते हैं कि “भली-भली सी बातें हों/ भला-भला सा मायाजाल/होती अक़्ल कहाँ चिड़िया में/ मीठा-मिठा दाना डाल/ आधी दुनिया हुई शिकारी/ बाकी बड़ा सुखी संसार” ।
गरीब मजदूरों को बाजार में बिकते हुए मिश्र जी ने अपनी कविता में प्रस्तुत किया है । गरीब मजदूर चाहे मजदूर लूले-लाँगड़े, थके-हारे, रंगीन चर्बी वाले जिस्म जो बाहर से देखने से सही और भीतर से बर्ड-फ्लू तथा एड्स से शरीर पीला पड़े मजदूर बाजार में बिक रहे हैं । खरीददार घूम –घूम कर बेफिक्र मे खरीद रहे हैं । जो मिश्र जी ने बाज़ार नामक कविता के माध्यम से दुनिया के सामने लाते हैं । वे कहते हैं कि“ एक दिन मैं/ गोश्त के बाज़ार से/ गुजर रहा था/ देखा कुछ लूले लँगड़े/ थके हारे बूढ़े भी/ बिक रहे थे/ लेकिन वो बकरे थे” ।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसके पास खूबसूरत जुबान, भाषा, बोली भी है मनुष्य दिन-रात मेहनत खुद के लिए केवल नहीं करता, संसार की भलाई के लिए सपने देखता है, कभी सुख का कभी दु:ख का । आँखे फिर भी बंद रहती है । ‘मनुष्य की सोच’ कविता के माध्यम से देखा जा सकता है ।“मनुष्य जो दिन-रात खटता/ खुद के लिए केवल नहीं/ संसार भी तृप्त होता/ बाहर-बाहर/ उँगलियों में हो थकन/ भीतर सुकून/ एक कंधे पर/ बहुत-सा भार होता/ कभी सुख का/ कभी दुख का” ।
वे कहते हैं कि समाज में कितना छ्ल-कपट,वेदना, पीड़ा, घुटन आदि मौज़ूद है कि किसी की बात पर भरोसा नहीं रह जाता है लोग अपने फायदे के लिए उपयोग में लाते हैं । जिस व्यक्ति में प्यार जैसी धार हो, जहर जैसी मिठा हो, ऐसे लोग अक्सर धोका देते हैं । जिन्हें कभी अपना समझ कर उनको गुलाब दिया था । अब उनके अंदर बिल्कुल सहानुभूति नहीं है । जो ‘अक्सर’कविता में मिश्र जी ने सामने लाया है वे कहते है कि“अक्सर देखा गया है/ मुस्कराहटों के पीछे/ साजिस काम करती है/ सम्मोहसन के पीछे/ बदनीयती” ।
भारत एक कृषि प्रधान देश है । मिश्र जी को यह अनुभव है । इसी कारण इनकी कविताओ में ग्रामीण परिवेश का वर्णन देखने को मिलता है । इनकी कविताओं में एक नहीं अनेक रास्ते खोलते हुए बड़ी तेजी और तल्खो के साथ बहुत दूर तक ले जाती हैं । खुला–खुला वह गाँव, से, मनुष्य की सोच, मायाजाल, बाज़ार, और अंतर्द्वन्द्व तक पहुँचा देती हैं । कवि ने समाज को यथार्थ रूप से कविताओं में सामने लाते हैं और उसको धूप, नदी, चाँदनी, मिट्टी, पत्ते, पेड़, झरना, गुलाब, खुशबू, रोशनी, अंधेरा, स्वप्न, आग, बर्फ, हवा, फूल, कान की बाली हो या धान की, शरीर पर लगे मिट्टी से पसीने की बू, कभी अपनी प्रतीकात्मकता से जीवन का स्पर्श करते रहते है और प्रतिबिम्ब के द्वारा प्रस्तुत करते हैं । इनकी कविताओं में संवेदन, भाईचारा, विश्वास, मानवता, साझेदारी, उर्वरक सी धरती अपनी सोधी खुशबू को पाठकों के बीच बिखेरती रहती है । इसीलिए पाठक इनकी कविता को पढ़ते समय मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं । मिश्र जी के अंदर पाठक को बांधने का हुनर अच्छा है ।
समीक्षा : करम हुसैन
प्रस्तुति : महेन्द्र कुमार
“यह भी एक रास्ता है”
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