कविता
ये कैसा मंजर है सृजन का
कि कविता की भूमि
तलाशते
कलमकार को चौंका गयी
नीरवता में एक
चीख,
बरबस बढ़ गये कदम
किन्तु !
हो गये नयन विस्मित
देख एक अबला की
लुटती लाज
निर्लज्जता से,
वो देखता रहा पाषाण सा
अपलक सतत
खोजता रहा
एक नयी कविता
अबला की पुष्ट देह में
कविता का संबल शीर्षक
पा गया था शायद
उसका भीरु मन ।
** रितु शर्मा ****
Sach btaye Maine kya kuchh galat likha