लावणी छंद
मानव कुल में जन्म लिया है,
कर्म घिनौने करते हैं!
गली गली में रावण बैठे,
नित पर नारी हरते हैं!
राखी का क्या मान बचेगा,
कर्ज दूध का भूल गये!
सत्ता जब लाचार हुई तो,
पापी मद में फूल गये!-
माँ दुर्गा को चले मनाने,
घर की माँ का ध्यान नहीं!
पूजा पाठ अनोखा उनका,
माँ के दुख का भान नहीं!
रामायण का पाठ करा कर ,
राम भक्त बन जाते हैं!
एक इन्च भूभाग हेतु जो,
भाई को मरवाते हैं!-
रावण का जो दहन करें वो,
शक्स नही मिल पायेगें!
मर्यादा जब बची नही तो,
राम कहाँ से लायेगें!
अंधी दौड चली है जग में,
मानवता का ज्ञान नही!
सब भूखे दौलत के जग में,
रिस्तो का अब मान नहीं!-
सत युग में सीता माँ बेवस,
हरण हुआ, बनवास सहा!
द्वापुर मे द्रोपदी तपडती,
चीर हरण उपहास सहा!
युग युग से नारी की गाथा,
दुख का ही अहसास बनी!
कभी छला अपनो ने तो फिर,
कभी गैर का ग्रास बनी!
— शिव चाहर ‘मयंक’