धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गोमाता, गोदुग्ध एवं गोरक्षा का महत्त्व

ओ३म्

 

 

ज्ञान व विज्ञान की चरम उन्नति होने पर भी मनुष्य आज भी आधा व अधूरा है। आज भी उसे बहुत सी बातों का ज्ञान नहीं है और आधुनिक विज्ञान की उन्नति ने उसे इतना अधिक अभिमानी बना दिया है कि वह किसी सत्य बात को भी मानना तो दूर, उसे सुनना भी नहीं चाहता है। यह स्थिति अनेक विषयों में है परन्तु इस लेख में हम गाय और उसके दूध की महत्ता व उपयोगिता पर कुछ चर्चा कर रहे हैं। आज भी यूरोप व मुस्लिम देशों में गोहत्या होती है और इन देशों में गाय के मांस का भक्षण भी बड़ी मात्रा में होता है। दुर्भाग्य से ऋषियों व देवों की भारत भूमि में गोहत्या का होना और यहां यूरोप व अरब आदि अनेक देशों को गोमांस का निर्यात होना दुःखद व आर्य हिन्दुओं के लिए घोर अपमानजनक कृत्य है। देश में बेरोजगारी की समस्या का एक एक मुख्य कारण गोहत्या होने के साथ गोसंरक्षण व गोसवंर्धन का न होना भी है। गोहत्या एवं गोमांस भक्षण का एक कारण, विज्ञान की उन्नति से हमारे व विदेशी बन्धुओं में अभिमान का उत्पन्न होना है जिसने उन लोगों में मानवीय संवेदनाओं, प्रेम, दया, करूणा व अंहिसा आदि को दबा वा ढक दिया है। वेदों में गाय के लिए ‘‘अघ्न्या” शब्द संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयोग में आया है। इसका अर्थ है कि गाय अवध्य है, इसकी हत्या नहीं की जा सकती तथा गोहत्या महापाप व बुरा एवं निषिद्ध कर्म है, जैसी भावनाओं के द्योतक मन्त्र व शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में यदि गो की हत्या की अनुमति देने वाले व गोहत्या करने वाले व गोमांस के भक्षक देश व मानवता के विरोधी इस कार्य को नहीं छोड़ते तो गाय को माता मानने वाले और गोहत्या को देश के लिए अहितकर मानने वाले भी अपनी तर्कसंगत बात को क्यों न बुद्धिजीवियों के समाने रखें, अर्थात् अवश्य रखना चाहिये। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लेख प्रस्तुत हैं।

 

गोमाता के महत्व के कारण ही ईश्वर ने अपने ज्ञान वेद में गो को अघ्न्या अर्थात् अवध्य, हनन न करने योग्य कह कर सभी मनुष्यों को चेतावनी व सावधान किया था। हमारे सभी ऋषि, मुनि एवं वैदिक विद्वान सृष्टि के आरम्भ से ही गोरक्षा करते आये हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के पूर्वज गोरक्षक थे ऐसा प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों से विदित होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण का तो गोरक्षा व गोपालक होने के कारण एक नाम ही गोपाल पड़ गया है। उनके प्रायः सभी चित्रों में उन्हें गोमाता सहित ही दिखाया जाता है। महाभारत काल के बाद मुस्लिम व उसके बाद अंग्रेजों की गुलामी का काल रहा है। ईसा की उन्न्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी गोरक्षा, गोपालन व गोसंवर्धन के महत्व को जानकर गोहत्या बन्द करने के लिए विशेष प्रयत्न व आन्दोलन किया था। गोहत्या रोकने और गोरक्षा के महत्व पर एक बहुत ही महत्वूपर्ण पुस्तक आर्यजगत के भूमण्डल प्रचारक प्रसिद्ध वैदिक विद्वान मेहता जैमिनी जी ने उर्दू में अनेक वर्षों पूर्व लिखी थी। पुस्तक महत्वपूर्ण थी परन्तु इसका हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। हमें इसके महत्व के विषय में ज्ञात हुआ तो हमने इसके लिए प्रयत्न किये। अब इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रसिद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुदित होकर आर्यसमाज के यशस्वी प्रकाशक श्री अजय कुमार द्वारा विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ उपलब्ध करा दिया गया है। यह पुस्तक गोमाता की रक्षा के महत्व पर गागर में सागर के समान है। प्रत्येक भारतीय, गोरक्षा के समर्थक व विरोधी, सभी को ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से इसे पढ़ना चाहिये। इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय गऊ की महिमा पर विदेशी तथा मुस्लिम विद्वानों की पूर्वाग्रह मुक्त सम्मतियां’ से हम कुछ प्रमुख यूरोपीय विद्वानों की सम्मितियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे गो की महत्ता के अनेक पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता’ पुस्तक में पहली सम्मति इसके लेखक मेहता जैमिनी ने जर्मनी के संस्कृत के एक विद्वान प्रोफेसर गेटी की दी है। प्रोफेसर गेटी ने अपनी पुस्तक प्राचीन काल के ब्राह्मणों की बुद्धिमत्ता’ में लिखा है कि क्या कारण है कि हम लोग तीनतीन वर्ष तक सस्कृत का अध्ययन करके प्राचीन काल के ब्राह्मणों जैसे ग्रन्थ लिखना तो दूर की बात रही उनके ग्रन्थों को समझने की भी हममें योग्यता नहीं होती? वेदान्त, योग तथा सांख्य दर्शन के समझने के लिए हमें काशी, नदिया तथा नवद्वीप के पण्डितों की शरण में जाना पड़ता है। प्रो. गेटी स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि इन विद्वानों ने वनों, गुफाओं तथा कंदराओं में एकान्त सेवन करके गऊ के दुग्ध तथा शाक फल पर निर्वाह करके ऐसे सूक्ष्म दार्शनिक आध्यात्मिक विषयों पर चिन्तनमनन किया। इससे ज्ञात होता है कि उनके मस्तिष्क स्वच्छ पवित्र थे। परन्तु हम मांस भक्षी होकर तामसिक वृत्ति वाले बन गये हैं। अतः वे अध्यात्म में, चिन्तन तथा कल्पना शक्ति में शिखर पर थे। हम तामसिक भोजन मदिरा का सेवन करने वाले आध्यात्मिकता में उनके सामने नहीं टिक सकते। श्री गेटी आगे लिखते हैं कि जब मैंने यह पढ़ा तो विचार आया कि यही कारण है कि हिन्दू लोग आज भी मृतक भोज और मृतक श्राद्धों में बाह्मणों को खीर खिलाते हैं तथा सुख में, शोक में भी ब्राह्मणों को गोदान करते हैं। अतः भारत ने गऊ को इस कारण महत्व दिया कि इस की देन दूध तथा उससे प्राप्त होने वाले मक्खन, घृत, मलाई, दही, छाछ, पनीर, खोया, रबड़ी मानव के जीवन, मस्तिष्क, स्वास्थ्य, अध्यात्म, आचार तथा सम्पन्नता के लिए अत्यधिक आवश्यक एवं उपयोगी हैं। इसलिए आज भी बोलचाल की भाषा में भारत में धनवानों को मालदार कहा जाता है। माल का एक मुख्य अर्थ गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, बकरी, भेड़ के हैं अर्थात् ये पशु धन प्राचीन काल में मनुष्य की सम्पन्नता की कसौटी थे।

 

भारत सरकार के कृषि विभाग के परामर्शदाता यूरोपीय विद्वान डा. हैरिसन ने शिकागो अमरीका के कृषि विज्ञान विशेषज्ञ हीन महोदय का उल्लेख कर उन्हें उद्धृत कर लिखा है कि गाय मनुष्य के लिए एक बहुमूल्य ईश्वरीय देन है। कोई भी जाति गऊ के बिना सभ्य नहीं बन सकती। गाय धरती पर सर्वोत्तम तथा लाभप्रद भोजन उपलब्ध कराती है। वह घास तथा सूखे खुरदरे पत्तों से अत्यन्त बलवर्द्धक स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन (दूध) तैयार करती है। वह (गाय) दूध केवल अपने बच्चों तथा पालकों के लिए प्रत्युत अवशिष्ट दूध बिक्री के लिए प्रदान करती है। जहां गऊ की रक्षा तथा पालन भली प्रकार किया जाता है वहां संस्कृति विकसित होती है, भूमि उपजाऊ होती है। घरों में समृद्धि होती है तथा सिर पर ऋण नहीं चढ़ता।

 

अमरीका के सुविख्यात डाक्टर वेकफील्ड ने लिखा है कि सच पूछो तो गऊ समृद्धि और सम्पन्नता की जननी वा माता है। प्राचीन काल के हिन्दू दूध मक्खन का प्रचुर प्रयोग किया करते थे। इसलिए वे शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ थे। उनके मस्तिष्क बहुत उर्वरा थे। सहनशक्ति आश्चर्यजनक थी। उन्होंने संस्कृत सरीखी पूर्ण, उत्कृष्ट तथा व्यापक समृद्ध भाषा को जन्म दिया। पीढ़ी दर पीढ़ी (गुरु शिष्य परम्परा से) वेदों को कण्ठाग्र करना तथा इतने विस्तृत ज्ञान, साहित्य तथा अध्यात्मवाद का प्रसार केवल गऊदुग्ध के भोजन से ही सम्भव हो पाया। वे ज्ञान के प्रत्येक विभाग (शाखा) के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वान् थे। विद्या ज्ञान, दर्शन, तथा अध्यात्म में, सैन्य कला तथा व्यापार में सुदक्ष थे। इन सब गुणों विशेषताओं का कारण गाय का दूध तथा फलों का प्रयोग था।

 

श्री डब्ल्यू स्मिथ सहायक निर्देशक, कृषि विभाग का कथन है कि पुराणों में जो वर्णन आलंकारिक रूप में आता है कि भूमि बैल के सींग पर खड़ी है, उसका अभिप्राय यही है कि क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह गाय बैल पर ही निर्भर है। यदि बैल न हों तो भारत की लहलहाती खेतियां उजड़ जायें क्योंकि हल जोतने के लिए बैल का होना आवश्यक है। इसके बिना भूमि वा खेतों की जोताई होना कठिन है। अतः गऊ को महत्व दिया गया है तथा इसके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए एक दिन नियत किया गया है जिसे गोपाष्टमी कहते हैं। उस दिन इसके गले में पुष्प माला पहनाई जाती है। इसके सींग सजाये जाते हैं। चावल व आटे के पेड़़ो से इसकी सेवा की जाती है। अतः परमात्मा ने भारत को गाय के रूप में सर्वोत्तम देन दी है इसलिए यहां के राजे-महाराजे, ऋषि-मुनि, जनसाधारण सब गऊ का सम्मान व पालन करते चले आये हैं तथा घर में गाय का रखना अपना धर्म समझते थे। इसके साथ वह अपने घरों को समृद्ध, स्वस्थ तथा सम्पदा से भरपूर रखते थे।

 

‘गऊ माता विश्व की प्राणदाता’ पुस्तक के लेखक ने इसके दूसरे अध्याय में 5 यूरोपीय विद्वानों, इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से एक उद्धृण तथा 6 मुस्लिम विद्वानों के गोरक्षा के समर्थन में सबल युक्तियों से प्रस्तुत कथनों को उद्धृत किया है। लेख को अधिक विस्तार न देकर अब हम इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का उद्धृण प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थ में लिखा है कि यदि संसार की सभ्य जातियां पशुओं की पूजा की ओर प्रवृत हो जायें तो गऊ सर्वाधिक पूजा के योग्य होगी। ओहो ! गऊ कैसा सौभाग्य का, कल्याण का स्रोत है। वह मक्खन, पनीर, दूध, दही ही नहीं देती प्रत्युत सींग, चमड़ा, मूत्र इत्यादि जैसे उत्तम, गुणकारी और उपयोगी पदार्थ देती है। हम उसके बच्चे को लूट लेते हैं जबकि उसके लिए बहुत स्वल्प दूध छोड़ते हैं। शोक ! महाशोक !! मनुष्य कितना स्वार्थी है। इसी का परिणाम है कि बैल निर्बल शरीर वाले उत्पन्न होते हैं तथा इनका वंश बलशाली नहीं होता।

 

मेहता जैमिनी जी लिखित गऊ माता पुस्तक सभी भारतीयों मुख्यतः सभी गोभक्त, गो प्रेमियों व ऐसे सभी लोगों को जो गाय का दूध पीते हैं व प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में गाय के किसी भी उत्पाद व उत्पादों से लाभान्वित होते हैं, उन्हें इस पुस्तक को कर्तव्य रूप जानकर पढ़ना चाहिये। कृतघ्नता महापाप है। कृतघ्न मनुष्य, मनुष्यता का सबसे बड़ा शत्रु, दूषण और कलंक होता है। गाय अघ्न्या व अवध्य है और गोमांस अभक्ष्य पदार्थ है। हमारी जन्मदात्री माता और गो माता दोनों ही हमारा पालन व पोषण करती हैं। दोनों ही हमारे लिए पूज्य व सत्करणीय देवता हैं। हमें कर्तव्य को जानकर गोमाता का भी अपनी जननी माता के समान पालन व रक्षण करना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य