लघुकथा : चौथा खम्भा
पिछले दो सालों से लगातार भटकने के बाद आखिर उसे महानगर के नामी टीवी न्यूज चैनल में संवाददाता की नौकरी मिल गई। उसके पिता एक गरीब किसान थे। उन्होंने उसे अपना खून-पसीना एक करके पढ़ाया ताकि कोई टिकाऊ नौकरी करें और अपनी दोनों छोटी बहनों की शादी के लिए पैसा जोड़े। उसने भी अपने पिता की लाज रखी और प्रथम श्रेणी से हिन्दी पत्रकारिता में स्नातक की उपाधि प्राप्त कीं।
मीडिया की नौकरी करने का उसका एक अन्य कारण भी था। लोकतंत्र के इस चौथे खंभे में उसकी गहरी आस्था थी, उसे विश्वास था कि मीडिया ही है जो गरीब और वंचित लोगों की आवाज को शासन-प्रशासन के कानों में डालता है। अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान ही उसने संकल्प किया था कि वह भी अपने पिछड़े गांव की बदहाली की तस्वीर एक न एक दिन अवश्य मीडिया में देगा। उसके गांववासी सालों से बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं, जहां स्कूल के नाम पर एक जर्जर-सी इमारत, बिना दवा-डाॅक्टर की डिस्पेंसरी और बिना बिजली के खंभे इसके गवाह है।
उसे बंहुत अंचभा हुआ कि न्यूज चैनल में होते हुए भी उसे एंटरटेनमेंट की बीट थमा दी गई। उसका काम बस फिल्मी सितारों और सेलेब्रेटिज की पार्टियों की कतरनें बटोरने था और उनके इंटरव्यू पर मसाला लगाकर ब्रेकिंग न्यूज बनाना था। उसे कुछ ही महीनों में सब कुछ समझ में आ गया। बाजार की ताकत के सामने जनहित मुद्दों के नाम पर की जा रही निरर्थक चर्चा की हकीकत वह बखूबी जान चुका था। अपने चैनल की एंकरों की हिन्दी सुनकर उसका मन क्रोध से भर जाता और अपनी प्रतिभा का हनन होते देख उसके आंसू निकल आते।
उस दिन जोरों की बारिश हो रही थी और उसकी तबीयत भी ठीक नहीं थी, लेकिन उसका जाना जरूरी था। उसे एक नामी फिल्मी एक्टर के बेटे के जन्मदिन की पार्टी कवर करनी थी। उसका जमीर उसे बार-बार धिक्कारता, लेकिन जब भी वह नौकरी छोड़ने का फैसला करता, उसके सामने दोनों छोटी बहनों का मासूम चेहरा आ जाता। उसने मनही मन एक बार फिर अपने गांववालों से माफी मांगी और भरे दिल से स्कूटर स्टार्ट कर निकल पड़ा।
— रमेश ‘आचार्य’
लघु कथा नए ज़माने को दर्शाती है जिस में गरीब के लिए कोई जगह नहीं .